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________________ ४९० Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार करोति, हस्तकुट्टकादीनि हस्तकुट्टकादिभिः परद्रव्यपरिणामात्मकैः करणैः परद्रव्यपरिणामात्मकानि करणानि गृह्णाति ग्रामादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कुण्डलादिकर्मफलं भुंक्ते च, नत्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति, ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वव्यवहारः। तथात्मापि पुण्यपापादिपुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति, कायवाङ्मनोभिः पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकैः करणै: करोति, कायवाङ्मनांसि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकानि करणानि गृह्णाति, सुखदुःखादिपुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकं पुण्यपापादिकर्मफलं भुंक्ते च, नत्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति; ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वव्यवहारः। यथा च स एव शिल्पी चिकीर्षुश्चेष्टारूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति, दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं चेष्टारूपकर्मफलं भुंक्ते च, एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति तन्मयश्च भवति; ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चयः। तथात्मापि चिकीर्षुश्चेष्टारूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति, दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं हथौड़ा आदि परद्रव्यपरिणामात्मक करणों के द्वारा करता है, हथौड़ा आदि जो परद्रव्यपरिणामात्मक करणों को ग्रहण करता है और कुंडल आदि कर्मका जो ग्रामादि परद्रव्यपरिणामात्मक फल उसको भोगता है, परंतु अनेकद्रव्यत्व के कारण उनसे (कर्म, करण आदिसे ) अन्य होनेसे तन्मय ( कर्मकरणादिमय) नहीं होता; इसलिये निमित्तनैमित्तिकभावमात्रसे ही वहाँ कर्तृ - कर्मत्वका और भोक्ता - भोग्यत्वका व्यवहार है; इसीप्रकार - आत्मा भी पुण्यपाप आदि जो पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक (-पुद्गलद्रव्यके परिणामस्वरूप) कर्मको करता है, काय - वचन - मनरूप पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक करणोंके द्वारा करता है, काय - वचन - मनरूप पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक करणोंको ग्रहण करता है और पुण्यपाप आदि कर्मके सुखदुःखादि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक फलको भोगता है, परंतु अनेकद्रव्यत्वके कारण उसने अन्य होनेसे तन्मय नहीं होता; इसलिये निमित्त-नैमित्तिकभावमात्रसे ही वहाँ कर्तृत्व- कर्मत्व और भोक्ता-भोग्यत्वका व्यवहार है। और जैसे- वही शिल्पी करनेका इच्छुक होता हुआ, चेष्टारूप ( अर्थात् कुंडल आदि करनेके अपने परिणामरूप और हस्तादिके व्यापाररूप) जो स्वपरिणामात्मक कर्म को करता है तथा दुःखस्वरूप ऐसा जो चेष्टारूप कर्मके स्वपरिणामात्मक फलको भोगता है, और एकद्रव्यत्वके कारण उनसे ( कर्म और कर्मफलसे) अनन्य होनेसे तन्मय (कर्ममय और कर्मफलमय ) है; इसलिये परिणाम - परिणामीभावसे वहीं कर्ताकर्मपनका और भोक्ता - भोग्यपनका निश्चय है; उसीप्रकार - आत्मा भी करनेका इच्छुक होता हुआ, चेष्टारूप ( - रागादिपरिणामरूप और प्रदेशोंके व्यापाररूप) ऐसा जो आत्मपरिणामात्मक फल उसको करता है, तथा दुःखस्वरूप ऐसा जो Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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