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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्ष अधिकार ४४३ ( वसन्ततिलका) यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात्। तत्कि प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोडधः किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः।। १८९ ।। (पृथ्वी) प्रमादकलितः कथं भवति शुद्धभावोऽलस: कषायभरगौरवादलसता प्रमादो यतः। अतः स्वरसनिर्भरे नियमितः स्वभावे भवन् मुनिः परमशुद्धतां व्रजति मुच्यते वाऽचिरात्।।१९० ।। श्लोकार्थ:- [ यत्र प्रतिक्रमणम् एव विषं प्रणीतं] (हे! भाई), जहाँ प्रतिक्रमणको ही विष कहा है, [ तत्र अप्रतिक्रमणम् एव सुधा कुत: स्यात् ] वहाँ अप्रतिक्रमण अमृत कहाँसे हो सकता है ? (अर्थात् नहीं हो सकता।) [ तत् ] तब फिर [ जनः अधः अधः प्रपतन् किं प्रमाद्यति ] मनुष्य नीचे ही नीचे गिरता हुआ प्रमादी क्यों होता है ? [ निष्प्रमाद: ] निष्प्रमाद होता हुआ [ ऊर्ध्वम् ऊर्ध्वम् किं न अधिरोहति ] ऊपर ही ऊपर क्यों नहीं चढ़ता ? भावार्थ:-अज्ञानावस्थामें जो अप्रतिक्रमणादि होते हैं उनकी तो बात ही क्या ? किन्तु यहाँ तो, शुभप्रवृत्तिरूप द्रव्यप्रतिक्रमणादिका पक्ष छुड़ाने के लिये उन्हें (द्रव्यप्रतिक्रमणादिको) निश्चयनयकी प्रधानतासे विषकुंभ कहा है क्योंकि कर्मबंधके ही कारण हैं, और प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिसे रहित ऐसी तीसरी भूमि, जो कि शुद्ध आत्मस्वरूप है तथा प्रतिक्रमणादिसे रहित होनेसे अप्रतिक्रमणादिरूप है, उसे अमृतकुंभ कहा है अर्थात् वहाँ के अप्रतिक्रमणादिको अमृतकुंभ कहा है। तृतीय भूमिपर चढ़ाने के लिये आचार्यदेव ने यह उपदेश दिया है। प्रतिक्रमणादिको विषकुंभ कहने की बात सुन कर जो लोग उल्टे प्रमादी होते हैं उनके सम्बन्धमें आचार्यदेव कहते हैं कि-'यह लोग नीचे ही नीचे क्यों गिरते हैं ? तृतीय भूमिमें ऊपर ही ऊपर क्यों नहीं चढ़ते ?' जहाँ प्रतिक्रमणको विषकुंभ कहा है वहाँ उसका निषेधरूप अप्रतिक्रमण ही अमृतकुंभ हो सकता है, अज्ञानीका नहीं। इसलिये जो अप्रतिक्रमणादि अमृतकुंभ कहे हैं वे अज्ञानीके अप्रतिक्रमणादि नहीं जानना चाहिये, किन्तु तीसरी भूमिके शुद्ध आत्मामय जानना चाहिये। १८९। अब इस अर्थको दृढ़ करता हुआ काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- [ कषाय-भर-गौरवात् अलसता प्रमाद: ] कषायके भार से भारी होनेसे आलस्य होना सो प्रमाद है; [ यतः प्रमादकलितः अलसः शुद्धभावः कथं भवति] इसलिये यह प्रमादयुक्त आलस्यभाव शुद्धभाव कैसे हो सकता है ? Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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