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________________ ४३८ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार परद्रव्यपरिहारेण शुद्धस्यात्मन: सिद्धिः साधनं वा राधः । अपगतो राधो यस्य चेतयितुः सोऽपराधः। अथवा अपगतो राधो यस्य भावस्य सोऽपराध:, तेन सह यश्चेतयिता वर्तते स सापराधः । स तु परद्रव्यग्रहणसद्भावेन शुद्धात्मसिद्धय भावाद्बन्धशङ्कासम्भवे सति स्वयमशुद्धत्वादनाराधक एव स्यात् । यस्तु निरपराध: स समग्रपरद्रव्यपरिहारेण शुद्धात्मसिद्धिसद्भावाद्बन्धशङ्काया असम्भवे सति उपयोगैकलक्षणशुद्ध आत्मैक एवाहमिति निश्चिन्वन् नित्यमेव शुद्धात्मसिद्धिलक्षणयाराधनया वर्तमानत्वादाराधक एव स्यात्। ( मालिनी ) अनवरतमनन्तबध्यते सापराधः स्पृशति निरपराधो बन्धनं नैव जातु । नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सा भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी ।। १८७ ।। टीका:- परद्रव्यके परिहार से शुद्ध आत्माकी सिद्धि अथवा साधन सो राध है । जो आत्मा ‘अपगतराध' अर्थात् राध रहित हो वह आत्मा अपराध है । अथवा (दूसरा समासविग्रह इसप्रकार है: ) जो भाव राध रहित हो वह भाव अपराध है; उस अपराध युक्त जो आत्मा वर्तता हो वह आत्मा सापराध है। वह आत्मा, परद्रव्यके ग्रहणके सद्भाव द्वारा शुद्ध आत्माकी सिद्धिके अभावके कारण बंधकी शंका होती है इसलिये स्वयं अशुद्ध होनेसे, अनाराधक ही है। और जो आत्मा निरपराध है वह, समग्र परद्रव्यके परिहार से शुद्ध आत्माकी सिद्धिके सद्भावके कारण बंधकी शंका नहीं होती इसलिये ‘उपयोग ही जिसका एक लक्षण है ऐसा एक शुद्ध आत्मा ही मैं हूँ' इसप्रकार निश्चय करता हुआ शुद्ध आत्माकी सिद्धि जिसका लक्षण है ऐसी आराधना पूर्वक सदा वर्तता है इसलिये, आराधक ही है । भावार्थ:-संसिद्धि, राध, सिद्धि, साधित और आराधित- इन शब्दोंका अर्थ एक ही है। यहाँ शुद्ध आत्माकी सिद्धि अथवा साधनका नाम 'राध' है। जिसके वह राध नहीं है वह आत्मा सापराध है और जिसके वह राध है वह आत्मा निरपराध है। जो सापराध है उसे बंधकी शंका होती है इसलिये वह स्वयं अशुद्ध होनेसे अनाराधक है; और जो निरपराध है वह निःशंक होता हुआ अपने उपयोगमें लीन होता है इसलिये उसे बंधकी शंका नहीं होती, इसलिये 'जो शुद्ध आत्मा है ' ऐसे निश्चयपूर्वक वर्तता हुआ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपके एक भावरूप निश्चय आराधनाका आराधक ही है। अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ :- [ सापराधः ] सापराध आत्मा [ अनवरतम् ] निरंतर [ अनन्तैः ] अनंत पुद्गलपरमाणुरूप कर्मोंसे [ बध्यते ] बँधता है; [ निरपराध: ] निरपराध आत्मा [ बन्धनम् ] बंधनको [ जातु ] कदापि [ स्पृशति न एव ] स्पर्श नहीं करता । [ अयम् ] Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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