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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिदो तं हि ससमयं जाण। पोग्गलकम्मपदेसट्ठिदं च तं जाण परसमयं ।।२।। जीवः चरित्रदर्शनज्ञानस्थितः तं हि स्वसमयं जानीहि। पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितं च तं जानीहि परसमयम्।।२।। योयं नित्यमेव परिणामात्मनि स्वभावेऽवतिष्ठमानत्वादुत्पादव्ययध्रौव्यैक्यानुभूति लक्षणया सत्तयानुस्यूतश्चैतन्यस्वरूपत्वान्नित्योदितविशददृशिज्ञप्तिज्योतिरनन्त जीव चरितदर्शनज्ञानस्थित, स्वसमय निश्चय जानना; स्थित कर्मपुद्गलके प्रदेशों, परसमय जीव जानना।। २।। गाथार्थ :- हे भव्य ! [ जीवः] जो जीव [चरित्रदर्शनज्ञानस्थितः] दर्शन, ज्ञान, चारित्रमें स्थित हो रहा है [ तं] उसे [ हि] निश्चयसे ( वास्तवमें) [ स्वसमयं] स्वसमय [जानीहि] जानो; [च] और जो जीव [पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितं] पुद्गलकर्मके प्रदेशोंमें स्थित है [ तं] उसे [ परसमयं] परसमय [ जानीहि ] जानो। टीका:- 'समय' शब्दका अर्थ इसप्रकार है :- ‘सम्' उपसर्ग है, जिसका अर्थ 'एकपना' है, और 'अय गतौ' धातु है, जिसका अर्थ गमन और ज्ञान भी है; इसलिये एक साथ ही (युगपद् ) जानना और परिणमन करना, यह दोनों क्रियायें एकत्वपूर्वक करे वह समय है। यह जीव नामक पदार्थ एकत्वपूर्वक एक ही समयमें परिणमन भी करता है और जानता भी है। इसलिये वह समय है। यह जीवपदार्थ सदा ही परिणामस्वरूप स्वभावमें रहता हुआ होनेसे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यकी एकतारूप अनुभूति लक्षणयुक्त सत्ता सहित है। (इस विशेषणसे जीवकी सत्ताको न मानने वाले नास्तिकवादियोंका मत खण्डन हो गया; तथा पुरुषको-जीवको अपरिणामी माननेवाले सांख्यवादीयोंका मत परिणमनस्वभाव कहनेसे खण्डित हो गया। नैयायिक और वैशेषिक सत्ताको नित्य ही मानते हैं, और बौद्ध क्षणिक ही मानते हैं; उनका निराकरण, सत्ताको उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप कहनेसे हो गया।) और जीव चैतन्यस्वरूपतासे नित्य उद्योतरूप निर्मल स्पष्ट दर्शनज्ञानज्योतिस्वरूप है ( क्योंकि चैतन्यका परिणमन दर्शनज्ञानस्वरूप है)। इस विशेषणसे, चैतन्यको ज्ञानाकारस्वरूप न माननेवाले सांख्यमतवालोंका निराकरण हो गया।) और वह जीव अनंत धर्मों में रहनेवाला जो एकधर्मीपना है उसके कारण जिसे द्रव्यत्व प्रगट है, ऐसा है; ( क्योंकि अनंत धर्मोकी एकता द्रव्यत्व है)। (इस विशेषणसे , वस्तुको धर्मोंसे रहित मानने वाले बौद्धमतियोंका निषेध हो गया।) और वह क्रमरूप और अक्रमरूप प्रवर्तमान अनेक भाव जिसका स्वभाव होनेसे जिसने गुणपर्यायों को अंगीकार किया है, ऐसा है। (पर्याय क्रमवर्ती होती है और गुण सहवर्ती होता है; सहवर्तीको अक्रमवर्ती भी कहते हैं।) (इस विशेषणसे, पुरुषको निर्गुण माननेवाले सांख्यमतवालोंका निरसन हो गया।) और वह, अपने और परद्रव्योंके आकारोंको Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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