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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पूर्वरंग तत्र तावत्समय एवाभिधीयते - जिससे अप्रमाण हो। भावार्थ :- गाथासूत्रमें आचार्यदेवने 'वक्ष्यामि' कहा है, उसका अर्थ टीकाकारने ‘वच् परिभाषणे' धातुसे परिभाषण किया है। उसका आशय इसप्रकार सूचित होता है कि; चौदह पूर्वोमेंसे ज्ञानप्रवाद नामक पांचवे पूर्वमें बारह 'वस्तु' अधिकार हैं; उनमें भी एक एकके बीस बीस 'प्राभृत' अधिकार हैं। उनमेंसे दशवें वस्तुमें समय नामक जो प्राभूत है उसके मल सत्रोंके शब्दोंका ज्ञान पहले बडे आचार्योंको था और उसके अर्थका ज्ञान आचार्योंकी परिपाटीके अनुसार श्री कुंदकुंदाचार्यदेव को भी था। उन्होंने समयप्राभृतका परिभाषण किया-परिभाषासूत्र बनाया। सूत्रकी दस जातियाँ कही गई हैं, उनमेंसे एक 'परिभाषा' जाति भी है। जो अधिकारको अर्थके द्वारा यथास्थान सूचित करे वह ‘परिभाषा' कहलाती है। श्री कुंदकुंदाचार्यदेव समयप्राभृतका परिभाषण करते हैं, अर्थात् वे समयप्राभृतके अर्थको ही यथास्थान बतानेवाला परिभाषासूत्र रचते हैं। आचार्यने मंगलके लिये सिद्धोंको नमस्कार किया है। संसारीके लिये शुद्ध आत्मा साध्य है और सिद्ध साक्षात् शुद्धात्मा है, इसलिये उन्हें नमस्कार करना उचित है। यहाँ किसी ईष्टदेवका नाम लेकर नमस्कार क्यों नहीं किया ? इसकी चर्चा टीकाकारके मंगलाचरण पर की गई है, उसे यहाँ भी समझ लेना चाहिये। सिद्धोंको 'सर्व' विशेषण देकर यह अभिप्राय बताया है कि सिद्ध अनंत हैं। इससे यह मानने वाले अन्यमतियोंका खण्डन हो गया कि 'शुद्ध आत्मा एक ही है'। 'श्रुतकेवली' शब्दके अर्थमें, (१) श्रुत अर्थात् अनादिनिधन प्रवाहरूप आगम और केवली अर्थात् सर्वज्ञदेव कहे गये हैं, तथा (२) श्रुत-अपेक्षासे केवली समान ऐसे गणधरदेवादि विशिष्ट श्रुतज्ञानधर कहे गये हैं उनसे समयप्राभृतकी उत्पत्ति बताई गई है। इस प्रकार ग्रंथकी प्रमाणता बताई है, और अपनी बुद्धिसे कल्पित कहनेका निषेध किया है। अन्यवादी छद्मस्थ (अल्पज्ञ) अपनी बुद्धिसे पदार्थका स्वरूप चाहे जैसा कह कर विवाद करते हैं, उनका असत्यार्थपन बताया है। इस ग्रंथके अभिधेय, संबंध और प्रयोजन तो प्रगट ही हैं। शुद्ध आत्माका स्वरूप अभिधेय (कहने योग्य) है। उसके वाचक इस ग्रंथमें जो शब्द हैं उनका और शुद्ध आत्माका वाच्यवाचकरूप संबंध है सो संबंध है। और शुद्धात्माके स्वरूपकी प्राप्ति का होना प्रयोजन है। प्रथम गाथामें समयका प्राभृत कहनेकी प्रतिज्ञा की है। इसलिये यह आकांक्षा होती है कि समय क्या है ? इसलिये पहले उस समयको ही कहते हैं : Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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