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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ३२२ किञ्च एदग्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि। एदेण होहि तित्तो होहदि तुह उत्तमं सोक्खं ।। २०६ ।। एतस्मिन् रतो नित्यं सन्तुष्टो भव नित्यमेतस्मिन्। एतेन भव तृप्तो भविष्यति तवोत्तमं सौख्यम्।। २०६ ।। एतावानेव सत्य आत्मा यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्र एव नित्यमेव रतिमुपैहि। एतावत्येव सत्याशी: यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव सन्तोषमुपैहि। एतावदेव सत्यमनुभवनीयं यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव तृप्तिमुपैहि। अथैवं तव नित्यमेवात्मरतस्य, आत्मसन्तुष्टस्य, आत्मतृप्तस्य च वाचामगोचरं सौख्यं भविष्यति। तत्तु तत्क्षण एव त्वमेव स्वयमेव द्रक्ष्यसि,*मा अन्यान् प्राक्षी:। अब इस गाथामें इसी उपदेशको विशेष कहते हैं: इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे । इससे हि बन तू तृप्त , उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे ।। २०६ ।। गाथार्थ:- (हे भव्य प्राणी!) तू [ एतस्मिन् ] इसमें ( -ज्ञानमें ) [ नित्यं ] नित्य [ रतः ] रत अर्थात् प्रीतिवाला हो, [ एतस्मिन् ] इसमें [ नित्यं ] नित्य [ सन्तुष्ट: भव] संतुष्ट हो और [ एतेन] इससे [ तृप्तः भव] तृप्त हो; ( ऐसा करनेसे) [ तव ] तुझे [ उत्तमं सौख्यम् ] उत्तम सुख [ भविष्यति ] होगा। टीका:- (हे भव्य ! ) इतना ही सत्य ( –परमार्थस्वरूप) आत्मा है जितना यह ज्ञान है-ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्रमें ही सदा ही रति ( –प्रीति, रुचि) प्राप्त कर; इतना ही सत्य कल्याण है जितना यह ज्ञान है-ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्रसे ही सदा ही संतोषको प्राप्त कर; इतना ही सत्य अनुभव करने योग्य है जितना यह ज्ञान है-ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्रसे ही सदा ही तृप्ति प्राप्त कर। इसप्रकार सदा ही आत्मामें रत, आत्मामें संतुष्ट और आत्मासे तृप्त ऐसे तुझको वचनगोचर सुख प्राप्त होगा; और उस सुखको उसी क्षण तू ही स्वयमेव देखेगा, दूसरोंसे मत पूछ। ( वह अपनेको ही अनुभवगोचर है, दूसरोंसे क्यों पूछना पड़ेगा ?) भावार्थ:-ज्ञानमात्र आत्मामें लीन होना, उसीसे संतुष्ट होना और उसीसे तृप्त होना परम ध्यान है। उससे वर्तमान आनंदका अनुभव होता है और थोड़े ही समयमें ज्ञानानंदस्वरूप केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है। ऐसा करने वाला पुरुष ही उस * मा अन्यान् प्राक्षी: (दूसरोंको मत पूछ) का पाठान्तर-माऽतिप्राक्षी: (अति प्रश्न न कर) Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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