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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates निर्जरा अधिकार ३२१ यतो हि सकलेनापि कर्मणा, कर्मणि ज्ञानस्याप्रकाशनात्, ज्ञानस्यानुपलम्भः। केवलेन ज्ञानेनैव, ज्ञान एव ज्ञानस्य प्रकाशनात्, ज्ञानस्योपलम्भः। ततो बहवोऽपि बहुनापि कर्मणा ज्ञानशून्या नेदमुपलभन्ते, इदमनुपलभमानाश्च कर्मभिर्न मुच्यन्ते। ततः कर्ममोक्षार्थिना केवलज्ञानावष्टम्भेन नियतमेवेदमेकं पदमुपलम्भनीयम्। (द्रुतविलम्बित) पदमिदं ननु कर्मदुरासदं सहजबोधकलासुलभं किल। तत इदं निजबोधकलाबलात् कलयितुं यततां सततं जगत्।।१४३ ।। टीका:-कर्ममें (कर्मकांडमें) ज्ञानका प्रकाशित होना नहीं होता इसलिये समस्त कर्मसे ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती है; ज्ञानमें ही ज्ञानका प्रकाश होता है इसलिये केवल (एक) ज्ञानसे ही ज्ञानकी प्राप्ति होती है। इसलिये बहुत से ज्ञानशून्य जीव, बहुतसे कर्म करने पर भी इस ज्ञानपदको प्राप्त नहीं कर पाते ओर इस पद को प्राप्त न करते हुए वे कर्मोंसे मुक्त नहीं होते; इसलिये कर्मोंसे मुक्त होनेके इच्छुकको मात्र (एक) ज्ञानके आलंबनसे , यह नियत एक पद प्राप्त करना चाहिये। भावार्थ:-ज्ञानसे ही मोक्ष होता है, कर्मसे नहीं; इसलिये मोक्षार्थीको ज्ञानका ही ध्यान करना ऐसा उपदेश है। अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- [इदं पदम् ] यह ( ज्ञानस्वरूप ) पद [ ननु कर्मदुरासदं ] कर्मोंसे वास्तवमें 'दुरासद है और [ सहज-बोध-कला-सुलभ किल ] सहज ज्ञानकी कलाके द्वारा वास्तव में सुलभ है; [ ततः ] इसलये [ निज-बोध-कला-बलात् ] निजज्ञानकी कलाके बलसे [इदं कलयितुं] इस पदको अभ्यास करने के लिये ( अनुभव करने के लिये) [ जगत् सततं यततां] जगत सतत प्रयत्न करो। भावार्थ:-समस्त कर्मोंको छुड़ाकर ज्ञानकलाके बल द्वारा ही ज्ञानका अभ्यास करनेका आचार्यदेवने उपदेश दिया है। ज्ञानकी 'कला' कहनेसे यह सूचित होता हैं कि:-जबतक सम्पूर्ण कला ( केवलज्ञान) प्रगट न हो तब तक ज्ञान हीनकलास्वरूप - मतिज्ञानादिरूप है; ज्ञानकी उस कलाके आलंबनसे ज्ञानका अभ्यास करनेसे केवलज्ञान अर्थात् पूर्ण कला प्रगट होती है। १४३। १। दुरासद = दुष्प्राप्य; अप्राप्य; न जीता जा सके ऐसा। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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