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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार २७० ( शार्दूलविक्रीडित) संन्यस्यन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं रागं समग्रं स्वयं वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं स्वशक्तिं स्पृशन्। उच्छिन्दन्परवृत्तिमेव सकलां ज्ञानस्य पूर्णो भवनात्मा नित्यनिरास्रवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा।। ११६ ।। (चारित्रमोहसंबंधी रागद्वेष) विद्यमान है और इससे उसके बंध भी होता है। इसलिये उसे यह उपदेश है कि-जबतक केवलज्ञान उत्पन्न न हो तबतक निरन्तर ज्ञानका ही ध्यान करना चाहिये, ज्ञानको ही देखना चाहिये, ज्ञानको ही जानना चाहिये और ज्ञानका ही आचरण करना चाहिये। इसी मार्गसे दर्शन-ज्ञान-चारित्रका परिणमन बढ़ता जाता है और ऐसा करते करते केवलज्ञान प्रगट होता है। जब केवलज्ञान प्रगटता है तबसे आत्मा साक्षात ज्ञानी है और सर्व प्रकारसे निरास्त्रव है। जबतक क्षायोपशमिक ज्ञान है तबतक अबुद्धिपूर्वक (चारित्रमोहका) राग होनेपर भी, बुद्धिपूर्वक रागके अभावकी अपेक्षासे ज्ञानीके निरास्त्रवत्व कहा है और अबुद्धिपूर्वक रागका अभाव होनेपर तथा केवलज्ञान प्रगट होनेपर सर्वथा निरास्त्रवत्व कहा। यह, विवक्षाकी विचित्रता है। अपेक्षासे समझने पर यह सर्व कथन यथार्थ है। अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :--- श्लोकार्थ:- [ आत्मा यदा ज्ञानी स्यात् तदा] आत्मा जब ज्ञानी होता है तब , [ स्वयं ] स्वयं [ निजबुद्धिपूर्वम् समग्रं रागं] अपने समस्त बुद्धिपूर्वक रागको [ अनिशं] निरंतर [ संन्यस्यन् ] छोड़ता हुआ अर्थात् न करता हुआ, [अबुद्धिपूर्वम् ] और जो अबुद्धिपूर्वक राग है [तं अपि] उसे भी [जेतुं] जीतनेके लिये [ वारंवारम् ] बारंबार [ स्वशक्तिं स्पृशन् ] ( ज्ञानानुभवनरूप) स्वशक्तिको स्पर्श करता हुआ और (इसप्रकार) [ सकलां परवृत्तिम् एव उच्छिन्दन् ] समस्त परवृत्तिको-परपरिणतिको-उखाड़ता हुआ [ ज्ञानस्य पूर्णः भवन् ] ज्ञानके पूर्णभावरूप होता हुआ, [ हि ] वास्तवमें [ नित्यनिरास्रवः भवति ] सदा निरास्रव है। भावार्थ:-ज्ञानीने समस्त रागको हेय जाना है। वह रागको मिटाने के लिये उद्यम किया करता है; उसके आस्रवभावकी भावनाका अभिप्राय नहीं है; इसलिये वह वह सदा निरास्त्रव ही कहलाता है। परवृति ( परपरिणति) दो प्रकारकी है-अश्रद्धारूप और अस्थिरतारूप। ज्ञानीने अश्रद्धारूप परवृत्तिको छोड़ दिया है और वह अस्थिरतारूप परवृत्तिको जीतने के लिये निज शक्तिको बारम्बार स्पर्श करता है अर्थात् परिणतिको स्वरूप प्रति बारंबार उन्मुख किया करता है। इसप्रकार सकल परवृत्तिको उखाड़कर के केवलज्ञान प्रगट करता है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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