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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates आस्रव अधिकार २६९ दर्शनज्ञानचारित्रं यत्परिणमते जघन्यभावेन । ज्ञानी तेन तु बध्यते पुद्गलकर्मणा विविधेन ।। १७२ ।। च यो हि ज्ञानी स *बुद्धिपूर्वकरागद्वेषमोहरूपास्रवभावाभावात् निरास्रव एव । किन्तु सोऽपि यावज्ज्ञानं सर्वोत्कृष्टभावेन द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरितुं वाऽशक्तः सन् जघन्यभावेनैव ज्ञानं पश्यति जानात्यनुचरति तावत्तस्यापि, जघन्यभावान्यथानुपपत्त्याऽनुमीयमानाबुद्धिपूर्वककलङ्कविपाकसद्भावात्, पुद्गलकर्मबन्ध: स्यात्। अतस्तावज्ज्ञानं द्रष्टव्यं ज्ञातव्यमनुचरितव्यं च यावज्ज्ञानस्य यावान् पूर्णो भावस्तावान् दृष्टो ज्ञातोऽनुचरितश्च सम्यग्भवति । ततः साक्षात् ज्ञानीभूतः सर्वथा निरास्रव एव स्यात् । गाथार्थ:- [ यत् ] क्योंकि [ दर्शनज्ञानचारित्रं ] दर्शन - ज्ञान - चारित्र [ जघन्यभावेन] जघन्य भावसे [ परिणमते ] परिणमन करते हैं [ तेन तु] इसलिये [ज्ञानी ] ज्ञानी [ विविधेन ] अनेक प्रकारके [ पुद्गलकर्मणा ] पुद्गलकर्मसे [ बध्यते ] बँधता है। टीका:- जो वास्तवमें ज्ञानी है, उसके बुद्धिपूर्वक ( इच्छापूर्वक ) रागद्वेषमोहरूपी आस्रवभावोंका अभाव है इसलिये, वह निरास्त्रव ही है। परंतु वहाँ इतना विशेष है कि —वह ज्ञानी जबतक ज्ञानको सर्वोत्कृष्ट भावसे देखने, जानने और आचरण करनेमें अशक्त वर्तता हुआ जघन्य भावसे ही ज्ञानको देखता, जानता और आचरण करता है तबतक उसे भी, जघन्यभावकी अन्यथा अनुपपत्तिके द्वारा ( अर्थात् जघन्य भाव अन्य प्रकारसे नहीं बनता इसलिये ) जिसका अनुमान हो सकता है ऐसे अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंकके विपाकका सद्भाव होनेसे, पुद्गलकर्मका बंध होता है। इसलिये तबतक ज्ञानको देखना, जानना और आचरण करना चाहिये जबतक ज्ञानका जितना पूर्ण भाव है उतना देखने, जानने और आचरणमें भली भाँति आ जाये। तबसे लेकर साक्षात् ज्ञानी होता हुआ ( वह आत्मा ) सर्वथा निरास्त्रव ही होता है। भावार्थ:-ज्ञानीके बुद्धिपूर्वक ( अज्ञानमय) रागद्वेषमोहका अभाव होनेसे वह निरास्त्रव ही है। परंतु जबतक क्षायोपशमिक ज्ञान है तबतक वह ज्ञानी ज्ञानको सर्वोत्कृष्ट भावसे न तो देख सकता है, न जान सकता है और न आचरण कर सकता है-किन्तु जघन्य भावसे देख सकता है, जान सकता है और आचरण कर सकता है; इससे यह ज्ञात होता कि उस ज्ञानीके अभी अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंकका विपाक * बुद्धिपूर्वकास्ते परिणामा ये मनोद्वारा बाह्यविषयानालम्बन प्रवर्तते, प्रवर्तमानाश्च स्वानुभवगम्याः अनुमानेन परास्यापि गम्या भवन्ति । अबुद्धिपूर्वकास्तु परिणामा इन्द्रियमनोव्यापारमंतरेण केवलमोहोदय निमित्तास्ते तु स्वानुभवगोचरत्वादबुद्धिपूर्वका इति विशेषा । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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