SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कर्ता-कर्म अधिकार २१५ (उपेन्द्रवज्त्रा) य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यम्। विकल्पजालच्युतशान्तचित्तास्त एव साक्षादमृतं पिबन्ति।।६९ ।। (उपजाति) एकस्य बद्धो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ७० ।। नचायेगा ? ऐसा कहकर श्री अमृतचंद्रआचार्यदेव नयपक्षके त्यागकी भावना वाले २३ कलशरूप काव्य कहते हैं :-- श्लोकार्थ:- [ये एव ] जो [ नयपक्षपातं मुक्त्वा] नयपक्षपातको छोड़कर [ स्वरूपगुप्ताः ] ( अपने) स्वरूपमें गुप्त होकर [ नित्यम् ] सदा [ निवसन्ति ] निवास करते हैं [ ते एव ] वे ही, [ विकल्पजालच्युतशान्तचित्ताः ] जिनका चित्त विकल्पजालसे रहित शांत हो गया है ऐसे होते हुए, [ साक्षात् अमृतं पिबन्ति ] साक्षात् अमृतका पान करते हैं। भावार्थ:-जबतक कुछ भी पक्षपात रहता है तबतक चित्तका क्षोभ नहीं मिटता। जब नयोंका सब पक्षपात दूर हो जाता है तब वीतराग दशा होकर स्वरूपकी श्रद्धा निर्विकल्प होती है, स्वरूपमें प्रवृत्ति होती है और अतीन्द्रिय सुखका अनुभव होता है। ६९। अब २० कलशों द्वारा नयपक्षका विशेष वर्णन करते हुए कहते हैं कि जो ऐसे समस्त नयपक्षोंको छोड़ देता है वह तत्त्ववेत्ता (तत्त्वज्ञानी) स्वरूपको प्राप्त करता है: श्लोकार्थ:- [बद्धः ] जीव कर्मोंसे बंधा हुआ है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [ न तथा ] और नहीं बँधा हुआ है [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति] इसप्रकार [ चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातो] दो पक्षपात हैं। [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता ( वस्तुस्वरूपका ज्ञाता) पक्षपातरहित हैं [ तस्य ] उसे [ नित्यं] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [ खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है (अर्थात् उसे चित्स्वरूप जीव जैसा है वैसा ही निरंतर अनुभवमें आता है)। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy