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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कर्ता-कर्म अधिकार १९७ जीवस्य परिणामित्वं साधयति ण सयं बद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं। जदि एस तुज्झ जीवो अप्परिणामी तदा होदि।। १२१ ।। अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहिं भावेहिं। संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।। १२२ ।। पोग्गलकम्मं कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्तं। तं सयमपरिणमंतं कहं णु परिणामयदि कोहो।।१२३ ।। अह सयमप्पा परिणमदि कोहभावेण एस दे बुद्धी। कोहो परिणामयदे जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा।।१२४ ।। कोहुवजुत्तो कोहो माणुवजुत्तो य माणमेवादा। माउवजुत्तो माया लोहुवजुत्तो हवदि लोहो।।१२५ ।। [ तस्य सः एव कर्ता ] उसका वह पुद्गलद्रव्य ही कर्ता है। भावार्थ:-सर्व द्रव्य परिणमनस्वभाववाले है इसलिये वे अपने अपने भावके स्वयं ही कर्ता हैं। पुद्गलद्रव्य भी अपने जिस भावको करता है उसका वह स्वयं ही कर्ता है। ६४। अब जीवका परिणमत्व सिद्ध करते हैं:नहिं बद्धकर्म , स्वयं नहीं जो क्रोधभावों परिणमे । तो जीव यह तुझ मतविर्षे परिणमनहीन बने अरे ।। १२१ ।। क्रोधादिभावों जो स्वयं नहिं जीव आप हि परिणमे । संसारका ही अभाव अथवा सांख्यमत निश्चय हुवे ।। १२२।। जो क्रोध-पुद्गलकर्म-जीवको, परिणमावे क्रोधमें । क्यों क्रोध उसको परिणमावे जो स्वयं नहिं परिणमे ।। १२३ ।। अथवा स्वयं जीव क्रोधभावों परिणमे-तुझ बुद्धिसे । तो क्रोध जीवको परिणमावे क्रोधमें-मिथ्या बने ।। १२४।। क्रोधोपयोगी क्रोध , जीव मानोपयोगी मान है। मायोपयुत माया अवरु लोभोपयुत लोभ हि बने ।। १२५ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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