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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार १९६ यदि पुद्गलद्रव्यं जीवे स्वयमबद्धं सत्कर्मभावेन स्वयमेव न परिणमेत तदा तदपरिणाम्येव स्यात्। तथा सति संसाराभावः। अथ जीव: पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयति ततो न संसाराभावः इति तर्कः। किं स्वयमपरिणममानं परिणममानं वा जीव: पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयेत् ? न तावत्तत्स्वयमपरिणममानं परेण परिणमयितुं पार्येत; न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते। स्वयं परिणममानं तु न परं परिणमयितारमपेक्षेत; न हि वस्तुशक्तयः परमपेक्षन्ते। तत: पुद्गलद्रव्यं परिणामस्वभावं स्वयमेवास्तु। तथा सति कलशपरिणता मृत्तिका स्वयं कलश इव जडस्वभावज्ञानावरणादिकर्मपरिणतं तदेव स्वयं ज्ञानावरणादिकर्म स्यात्। इति सिद्धे पुद्गलद्रव्यस्य परिणामस्वभावत्वम्। (उपजाति) स्थितेत्यविध्ना खलु पुद्गलस्य स्वभावभूता परिणामशक्तिः। तस्यां स्थितायां स करोति भावं यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता।। ६४ ।। टीका:-यदि पुद्गलद्रव्य जीवमें स्वयं न बँधकर कर्मभावसे स्वयमेव परिणमता न हो, तो वह अपरिणामी ही सिद्ध होगा। और ऐसा होनेसे, संसारका अभाव होगा। ( क्योंकि यदि पुद्गलद्रव्य कर्मरूप नहीं परिणमे तो जीव कर्मरहित सिद्ध होवे ; तब फिर संसार किसका ?) यदि यहाँ यह तर्क उपस्थित किया जाये कि “जीव पुद्गलद्रव्यको कर्मभावसे परिणमाता है इसलिये संसार का अभाव नहीं होगा,” तो उसका निराकरण दो पक्षोंको लेकर इसप्रकार किया जाता है कि:-क्या जीव स्वयं अपरिणमते हुए पुद्गलद्रव्यको कर्मभावरूप परिणमाता है या स्वयं परिणमते हुएको ? प्रथम, स्वयं अपरिणमते हुए को दूसरे के द्वारा नहीं परिणमाया जा सकता, क्योंकि ( वस्तुमें) जो शक्ति स्वतः न हो उसे अन्य कोई नहीं कर सकता। (इसलिये प्रथम पक्ष असत्य है।) और स्वयं परिणमते हुए को अन्य परिणमाने वाले की अपेक्षा नहीं होती; क्योंकि वस्तुकी शक्तियाँ परकी अपेक्षा नहीं रखतीं। (इसलिये दूसरा पक्ष भी असत्य है।) अतः पुद्गलद्रव्य परिणमनस्वभाववाला स्वयमेव हो। ऐसा होनेसे , जैसे घटरूप परिणमित मिट्टी ही स्वयं घट है उसीप्रकार, जड़ स्वभाववाले ज्ञानावरणादिकर्मरूप परिणमित पुद्गलद्रव्य ही स्वयं ज्ञानावरणादिकर्म है। इसप्रकार पुद्गलद्रव्यका परिणामस्वभावत्व सिद्ध हुआ। अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- [इति] इसप्रकार [ पुद्गलस्य ] पुद्गलद्रव्यकी [ स्वभावभूता परिणामशक्ति:] स्वभावभूत परिणमनशक्ति [ खलु अविध्ना स्थिता] निर्विध्न सिद्ध हुई। [ तस्यां स्थितायां] और उसके सिद्ध होनेपर, [ सः आत्मन: यम् भावं करोति] पुद्गलद्रव्य अपने जिस भावको करता है Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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