SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार यं करोति भावमात्मा कर्ता स भवति तस्य भावस्य। कर्मत्वं परिणमते तस्मिन् स्वयं पुद्गलं द्रव्यम्।। ९१ ।। आत्मा ह्यात्मना तथापरिणमनेन यं भावं किल करोति तस्यायं कर्ता स्यात्, साधकवत्। तस्मिन्निमित्ते सति पुद्गलद्रव्यं कर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते। तथाहि-यथा साधक: किल तथाविधध्यानभावेनात्मना परिणममानो ध्यानस्य कर्ता स्यात्, तस्मिस्तु ध्यानभावे सकलसाध्यभावानु-कूलतया निमित्तमात्रीभूते सति साधकं कर्तारमन्तरेणापि स्वयमेव बाध्यन्ते विषव्याप्तयो, विडम्ब्यन्ते योषितो, ध्वंस्यन्ते बन्धाः। तथायमज्ञानादात्मा मिथ्यादर्शनादिभावेनात्मना परिणममानो मिथ्यादर्शनादिभावस्य कर्ता स्यात्, तस्मिस्तु मिथ्यादर्शनादौ भावे स्वानुकूलतया निमित्तमात्रीभूते सत्यात्मानं कर्तारमन्तरेणापि पुद्गलद्रव्यं मोहनीयादिकर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते। गाथार्थ:- [आत्मा] आत्मा [ यं भावम् ] जिस भावको [ करोति ] करता है [ तस्य भावस्य] उस भावका [ सः ] वह [कर्ता] कर्ता [भवति] होता है; [तस्मिन्] उसके कर्ता होनेपर [ पुद्गलं द्रव्यम् ] पुद्गलद्रव्य [ स्वयं] अपने आप [कर्मत्वं ] कर्मरूप [ परिणमते ] परिणमित होता है। टीका:-आत्मा स्वयं ही उस रूप परिणमित होनेसे जिस भावको वास्तवमें करता है उसका वह –साधककी (मंत्र साधनेवालेकी) भाँति-कर्ता होता है; वह ( आत्माका भाव ) निमित्तभूत होनेपर, पुद्गलद्रव्य कर्मरूप स्वयमेव परिणमित होता है। इसी बात को स्पष्टतया समझाते हैं:-जैसे साधक उस प्रकारके ध्यानभावसे स्वयं ही परिणमित होता हआ ध्यानका कर्ता होता है और वह ध्यानभाव समस्त साध्यभावोंको ( साधकके साधनेयोग्य भावोंको) अनुकूल होनेसे निमित्तमात्र होनेपर, साधक के कर्ता हुए बिना ( सादिकका) व्याप्त विष स्वयमेव उतर जाता है, स्त्रियाँ स्वयमेव विडंबना को प्राप्त होती है और बंधन स्वयमेव टूट जाते हैं; इसीप्रकार यह आत्मा अज्ञानके कारण मिथ्यादर्शनादिभावरूप स्वयं ही परिणमित होता हुआ मिथ्यादर्शनादिभावका कर्ता होता है और वह मिथ्यादर्शनादिभाव पुद्गलद्रव्यको (कर्मरूप परिणमित होने में ) अनुकूल होनेसे निमित्तमात्र होनेपर, आत्माके कर्ता हुए बिना पुद्गलद्रव्य मोहनीय आदि कर्मरूप स्वयमेव परिणमित होते हैं। भावार्थ:-आत्मा तो अज्ञानरूप परिणमित होता है, किसीके साथ ममत्व करता है, किसीके साथ राग करता है, और किसी के साथ द्वेष करता है; उन भावोंका स्वयं कर्ता होता है। उन भावोंके निमित्तमात्र होनेपर, पुद्गलद्रव्य स्वयं अपने भावसे ही कर्मरूप परिणमित होता है। परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव मात्र है। कर्ता तो दोनों अपने भावके भावके हैं यह निश्चय है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy