SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कर्ता-कर्म अधिकार १६३ अथैवमयमनादिवस्त्वन्तरभूतमोहयुक्तत्वादात्मन्युत्प्लवमानेषु मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिभावेषु परिणामविकारेषु त्रिष्वेतेषु निमित्तभूतेषु परमार्थतः शुद्धनिरञ्जनानादिनिधन वस्तुसर्वस्वभूतचिन्मात्रभावत्वेनैकविधोऽप्यशुद्धसाञ्जनानेकभावत्वमापद्यमानस्त्रिविधो भूत्वा स्वयमज्ञानीभूतः कर्तृत्वमुपढौकमानो विकारेण परिणम्य यं यं भावमात्मनः करोति तस्य तस्य किलोपयोगः कर्ता स्यात्। अथात्मनस्त्रिविधपरिणामविकारकर्तृत्वे सति पुद्गलद्रव्यं स्वत एव कर्मत्वेन परिणमतीत्याह जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स। कम्मत्तं परिणमदे तम्हि सयं पोग्गलं दव्वं ।। ९१ ।। टीका:-इसप्रकार अनादिसे अन्यवस्तुभूत मोहके साथ संयुक्तताके कारण अपनेमें उत्पन्न होनेवाले जो यह तीन मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरतिभावरूप परिणामविकार हैं उनके निमित्तसे (-कारणसे) -यद्यपि परमार्थसे तो उपयोग शुद्ध, निरंजन, अनादिनिधन वस्तुके सर्वस्वभूत चैतन्यमात्रभावपने से एक प्रकारका है तथापि-अशुद्ध , सांजन अनेकभावताको प्राप्त होता हुआ तीन प्रकारका होकर, स्वयं अज्ञानी होता हुआ कर्तृत्वको प्राप्त, विकाररूप परिणमित होकर जिस जिस भावको अपना करता है उस उस भावका वह उपयोग कर्ता होता है। भावार्थ:-पहले कहा था कि जो परिणमित होता है सो कर्ता है। यहाँ अज्ञानरूप होकर उपयोग परिणमित हुआ इसलिये जिस भावरूप वह परिणमित हुआ उस भावका उसे कर्ता कहा। इसप्रकार उपयोगको कर्ता जानना चाहिये। यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनयसे आत्मा कर्ता नहीं है, तथापि उपयोग और आत्मा एक वस्तु होनेसे अशुद्धद्रव्यार्थिकनयसे आत्मा को भी कर्ता कहा जाता है। अब, यह कहते हैं कि जब आत्माके तीन प्रकारके परिणामविकारका कर्तृत्व होता है तब पुद्गलद्रव्य अपने आप ही कर्मरूप परिणमित होता है: जो भाव जीव करे स्वयं, उस भाव का कर्ता बने । उस ही समय पुद्गल स्वयं, कर्मत्व रूपहि परिणमे ।। ९१ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy