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________________ १९८ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार पुद्गलमयत्वं चागमप्रसिद्धं दृश्यमानशरीरादिमूर्तकार्यानुमेयं च । एवं गन्धरसस्पर्शरूप शरीरसंस्थान संहननान्यपि पुद्गलमयनामकर्मप्रकृतिनिर्वृत्तत्वे सति तदव्यतिरेकाज्जीवस्थानैरेवोक्तानि। ततो न वर्णादयो जीव इति निश्चयसिद्धान्तः। ( उपजाति) निर्वर्त्यते येन यदत्र किञ्चित् तदेव तत्स्यान्न कथञ्चनान्यत्। रुक्मेण निर्वृत्तमिहासिकोशं पश्यन्ति रुक्मं न कथञ्चनासिम्।। ३८ ।। पुद्गलमयता तो आगमसे प्रसिद्ध है तथा अनुमानसे भी जानी जा सकती है क्योंकि प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले शरीर आदि जो मूर्तिक भाव हैं वे कर्मप्रकृतियोंके कार्य हैं इसलिये कर्मप्रकृतियाँ पुद्गलमय हैं ऐसा अनुमान हो सकता है। इसीप्रकार गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान और संहनन भी पुद्गलमय नामकर्मकी प्रकृतियों के द्वारा रचित होनेसे पुद्गलसे अभिन्न हैं; इसलिये, मात्र जीवस्थानोंको पुद्गलमय कहने पर इन सबको भी पुद्गलमय ही कथित समझना चाहिये। इसलिये वर्णादिक जीव नहीं हैं यह निश्चयनयका सिद्धांत है। यहाँ इस अर्थ का कलशरूप काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- [ येन ] जिस वस्तुसे [ अत्र यद् किञ्चित् निर्वर्त्यते ] जो भाव बने, [ तत्] वह भाव [ तद् एव स्यात् ] वह वस्तु ही है, [ कथञ्चन ] किसी भी प्रकार [ अन्यत् न ] अन्य वस्तु नहीं हैं; [ इह ] जैसे जगतमें [ रुक्मेण निर्वृत्तम् असिकोशं ] स्वर्ण निर्मित म्यानको [ रुक्मं पश्यन्ति ] लोग स्वर्ण ही देखते हैं, ( उसे ) [ कथञ्चन ] किसी प्रकारसे [न असिम् ] तलवार नहीं देखते। भावार्थ:-वर्णादि पुद्गल रचित हैं इसलिये वे पुद्गल ही हैं, जीव नहीं । ३८ । अब दूसरा कलश कहते हैं: Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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