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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जीव- अजीव अधिकार एकं च दोण्णि तिण्णि य चत्तारि य पंच इंदिया जीवा । बादरपज्जत्तिदरा पयडीओ णामकम्मस्स ।। ६५ ।। दाहि यणिव्वत्ता जीवद्वाणा उ करणभूदाहिं । पयडीहिं पोग्गलमइहिं ताहिं कहं भण्णदे जीवो ।। ६६ ।। एकं वा द्वे त्रीणि च चत्वारि च पञ्चेन्द्रियाणि जीवाः । बादरपर्याप्तेतराः प्रकृतयो नामकर्मणः ।। ६५ ।। एताभिश्च निर्वृत्तानि जीवस्थानानि करणभूताभिः । प्रकृतिभिः पुद्गलमयीभिस्ताभिः कथं भण्यते जीवः।। ६६ ।। ११७ 3 निश्चयतः कर्मकरणयोरभिन्नत्वात् यद्येन क्रियते तत्तदेवेति कृत्वा यथा कनकपत्रं कनकेन क्रियमाणं कनकमेव, न त्वन्यत्, तथा जीवस्थानानि बादरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्ताभिधानाभिः पुद्गलमयीभिः नामकर्मप्रकृतिभिः क्रियमाणानि पुद्गल एव, न तु जीवः । नामकर्मप्रकृतीनां जीव एक-दो-त्रय-चार-पंचेन्द्रिय, बादर, सूक्ष्म हैं। पर्याप्त अनपर्याप्त जीव जु नामकर्म की प्रकृति है ।। ६५ ।। जो प्रकृति यह पुद्गलमयी, वह करणरूप बने अरे । उससे रचित जीव स्थान जो हैं, जीव क्यों हि कहाय वे । ६६ ॥ गाथार्थ:- [ एकं वा ] एकेंद्रिय, [ द्वे ] द्वीन्द्रिय, [ त्रीणि च ] त्रीन्द्रिय, [ चत्वारि च ] चतुरिन्द्रिय, और [ पञ्चेन्द्रियाणि ] पंचेन्द्रिय, [ बादरपर्याप्ततराः ] बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त [ जीवाः ] जीव तथा यह [ नामकर्मणः] नामकर्मकी [ प्रकृतयः ] प्रकृतियाँ हैं; [ एताभिः [] इन [ प्रकृतिभिः ] प्रकृतियों [ पुद्गलमयीभिः ताभिः] जो कि पुद्गलमय रूपसे प्रसिद्ध हैं उनके द्वारा [ करणभूताभिः ] करणस्वरूप होकर [निर्वृत्तानि ] रचित [ जीवस्थानानि ] जो जीवस्थान ( जीवसमास ) हैं वे [ जीवः ] जीव [ कथं ] कैसे [ भण्यते ] कहे जा सकते हैं ? टीका:-निश्चयनयसे कर्म और करणकी अभिन्नता होनेसे, जो जिससे किया जाता है (-होता है) वह वही है - यह समझकर (निश्चय करके), जैसे सुवर्ण-पत्र सुवर्ण से किया जाता होने से सुवर्ण ही है, अन्य कुछ नहीं है, इसी प्रकार जीवस्थान बादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त और अपर्याप्त नामक पुद्गलमयी नामकर्मकी प्रकृतियोंसे किये जाते होनेसे पुद्गल ही हैं, जीव नहीं हैं। और नामकर्मकी प्रकृतियोंकी Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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