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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates दूसरा अधिकार ] [२९ उसी प्रकार कषाय होने पर योगद्वार से ग्रहण किया हुआ कर्मवर्गणारूप पुद्गलपिण्ड ज्ञानावरणादि प्रकृतिरूप परिणमित होता है। तथा उन कर्मपरमाणुओंमें यथायोग्य किसी प्रकृतिरूप थोड़े और किसी प्रकृतिरूप बहुत परमाणु होते हैं। तथा उनमें कई परमाणुओंका सम्बन्ध बहुत काल और कइयों का थोड़े काल रहता है। तथा उन परमाणुओंमें कई तो अपने कार्य को उत्पन्न करने की बहुत शक्ति रखते हैं और कई थोड़ी शक्ति रखते हैं। वहाँ ऐसा होने में किसी कर्मवर्गणारूप पुद्गलपिण्डको ज्ञान तो है नहीं कि मैं इस प्रकार परिणमन करूँ तथा और भी कोई परिणमन कराने वाला नहीं है; ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक भाव बन रहा है उससे वैसे ही परिणमन पाया जाता है। ऐसे तो लोकमें निमित्त-नैमित्तिक बहुत ही बन रहे हैं। जैसे मंत्र निमित्त से जलआदिकमें रोगादिक दूर करने की शक्ति होती है तथा कंकरी आदि में सर्पादि रोकने की शक्ति होती है; उसी प्रकार जीवभाव के निमित्त से पुद्गलपरमाणुओंमें ज्ञानावरणादिरूप शक्ति होती है। यहाँ विचार कर अपने उद्यम से कार्य करे तो ज्ञान चाहिये, परन्तु वैसा निमित्तबनने पर स्वयमेव वैसे परिणमन हो तो वहाँ ज्ञान का कुछ प्रयोजन नहीं है। इस प्रकार नवीन बन्ध होने का विधान जानना। सत्तारूप कर्मों की अवस्था अब जो परमाणु कर्मरूप परिणमित हुए हैं उनका जबतक उदयकाल न आये तबतक जीवके प्रदेशों से एकक्षेत्रावगाहरूप बंधान रहता है। वहाँ जीवभाव के निमित्तसे कई प्रकृतियोंकी अवस्थाका पलटना भी हो जाता है। वहाँ कई अन्य प्रकृतियों के परमाणु थे वे संक्रमणरूप होकर अन्य प्रकृतियोंके परमाणु हो जायें। तथा कई प्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग बहुत थे सो अपकर्षण होकर थोड़े हो जायें, तथा कई प्रकृतियों की स्थिति एवं अनुभाग थोड़े थे सो उत्कर्षण होकर बहुत हो जायें। इस प्रकार पूर्व में बँधे हुए परमाणुओं की भी जीवभावोंका निमित्त पाकर अवस्था पलटती है, और निमित्त न बने तो नहीं पलटे, ज्यों की त्यों रहे। इस प्रकार सत्तारूप कर्म रहते हैं। कर्मों की उदयरूप अवस्था तथा जब कर्मप्रकृतियोंका उदयकाल आये तब स्वयमेव उन प्रकृतियोंके अनुभागके अनुसार कार्य बने, कर्म उन कार्यों को उत्पन्न नहीं करते। उनका उदयकाल आने पर वह कार्य बनता है - इतना ही निमित्त-नैमित्तिक संबंध जानना। तथा जिस समय फल उत्पन्न हुआ उसके अनन्तर समय में उन कर्मरूप पुदगलों को अनुभाग शक्ति का अभाव होने से Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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