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________________ २८ ] Version 002: remember to check http://www.Atma Dharma.com for updates [ मोक्षमार्गप्रकाशक तथा उस कषाय द्वारा ही उन कर्मप्रकृतियोंमें अनुभाग शक्तिका विशेष होता है। वहाँ जैसा अनुभाग बंध हो वैसा ही उदयकाल में उन प्रकृतियोंका बहुत या थोड़ा फल उत्पन्न होता है। वहाँ घाति कर्मोंकी सर्वप्रकृतियोंमें तथा अघाति कर्मोंकी पापप्रकृतियोंमें तो अल्प कषाय होनेपर अल्प अनुभाग बंधता है, बहुत कषाय होनेपर बहुत अनुभाग बंधता है; तथा पुण्य-प्रकृतियोंमें अल्प कषाय होने पर बहुत अनुभाग बंधता है, बहुत कषाय होने पर थोड़ा अनुभाग बंधता है। इस प्रकार कषायों द्वारा कर्मप्रकृतियोंके स्थिति - अनुभागका विशेष हुआ; इसलिये कषायों द्वारा स्थितिबंध - अनुभागबंधका होना जानना । यहाँ जिसप्रकार बहुत मदिरा भी है और उसमें थोड़े कालपर्यन्त थोड़ी उन्मत्तता उत्पन्न करने की शक्ति है तो वह मदिरा हीनपने को प्राप्त है, तथा यदि थोड़ी भी मदिरा है और उसमें बहुत कालपर्यन्त बहुत उन्मत्तता उत्पन्न करने की शक्ति है तो वह मदिरा अधिकपने को प्राप्त है, उसी प्रकार बहुत भी कर्मप्रकृतियोंके परमाणु हैं और उनमें थोड़े काल पर्यन्त थोड़ा फल देने की शक्ति है तो वे कर्मप्रकृतियाँ हीनता को प्राप्त हैं, तथा थोड़े भी कर्मप्रकृतियों के परमाणु हैं और उनमें बहुत काल पर्यन्त बहुत फल देने की शक्ति है तो वे कर्मप्रकृतियाँ अधिकपनेको प्राप्त हैं। इसलिये योगों द्वारा हुए प्रकृतिबंध - प्रदेशबंध बलवान् नहीं हैं, कषायों द्वारा किया गया स्थिति बंध अनुभागबंध ही बलवान् है; इसलिये मुख्यरूप से कषायोंको ही बंधका कारण जानना। जिन्हें बंध नहीं करना हो वे कषाय नहीं करें। ज्ञानहीन जड़-पुद्गल परमाणुओंका यथायोग्य प्रकृतिरूप परिणमन अब यहाँ कोई प्रश्न करे कि पुद्गल परमाणुतो जड़ है, उन्हें कुछ ज्ञान नहीं है; तो वे कैसे यथायोग्य प्रकृतिरूप होकर परिणमन करते हैं ? समाधान :- जैसे भूख होनेपर मुख द्वारा ग्रहण किया हुआ भोजनरूप पुद्गलपिण्ड मांस, शुक्र, शोणित आदि धातुरूप परिणमित होता है। तथा उस भोजन के परमाणुओंमें यथायोग्य किसी धातुरूप थोड़े और किसी धातुरूप बहुत परमाणु होते हैं। तथा उनमें कई परमाणुओंका सम्बन्ध बहुत काल रहता है, कइयोंका थोड़े काल रहता है। तथा उन परमाणुओंमें कई तो अपने कार्योंको उत्पन्न करनेकी बहुत शक्ति रखते हैं, कई थोड़ी शक्ति रखते हैं। वहाँ ऐसा होने में कोई भोजनरूप पुद्गलपिण्डको ज्ञान तो नहीं है कि मैं इसप्रकार परिणमन करूँ तथा और भी कोई परिणमन कराने वाला नहीं है; ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिकभाव हो रहा है उससे वैसे ही परिणमन पाया जाता है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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