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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १२] [मोक्षमार्गप्रकाशक क्रोध, मान, माया, लोभ अत्यन्त तीव्र होने पर ही होता है; किन्तु जैन धर्म में तो ऐसा कषायवान होता नहीं है। प्रथम मूल उपदेशदाता तो तीर्थंकर केवली, सो तो सर्वथा मोह के नाश से सर्वकषायोंसे रहित ही हैं। फिर ग्रंथकर्ता गणधर तथा आचार्य, वे मोहके मंद उदयसे सर्व बाह्याभ्यंतर परिग्रहको त्यागकर महामंदकषायी हुए हैं; उनके उस मंदकषायके कारण किंचित् शुभोपयोग ही की प्रवृत्ति पायी जाती है और कुछ प्रयोजन ही नहीं है। तथा श्रद्धानी गृहस्थ भी कोई ग्रंथ बनाते हैं वे भी तीव्रकषायी नहीं होते। यदि उनके तीव्र कषाय हो तो सर्व कषायोंका जिस-तिस प्रकारसे नाश करनेवाला जो जिनधर्म उसमें रुचि कैसे होती ? अथवा जो कोई मोहके उदयसे अन्य कार्यों द्वारा कषायका पोषण करता है तो करो; परन्तु जिनआज्ञा भंग करके अपनी कषायका पोषण करे तो जैनीपना नहीं रहता। इस प्रकार जिनधर्ममें ऐसा तीव्रकषायी कोई नहीं होता जो असत्य पदों की रचना करके परका और अपना पर्याय-पर्यायमें बुरा करे । प्रश्न :- यदि कोई जैनाभास तीव्रकषायी होकर असत्यार्थ पदोंको जैन-शास्त्रों में मिलाये और फिर उसकी परम्परा चलती रहे तो क्या किया जाय ? समाधान :- जैसे कोई सच्चे मोतियोंके गहनेमें झूठे मोती मिला दे, परन्तु झलक नहीं मिलती; इसलिये परीक्षा करके पारखी ठगाता भी नहीं है, कोई भोला हो वही मोती के नाम से ठगा जाता है; तथा उसकी परम्परा भी नहीं चलती, शीघ्र ही कोई झूठे मोतियों का निषेध करता है। उसी प्रकार कोई सत्यार्थ पदों के समूहरूप जैनशास्त्र में असत्यार्थ पद मिलाये; परन्तु जैन शास्त्रोंके पदोंमें तो कषाय मिटानेका तथा लौकिक कार्य घटाने का प्रयोजन है, और उस पापी ने जो असत्यार्थ पद मिलाये हैं, उनमें कषाय का पोषण करनेका तथा लौकिक-कार्य साधनेका प्रयोजन है, इस प्रकार प्रयोजन नहीं मिलता; इसलिये परीक्षा करके ज्ञानी ठगाता भी नहीं, कोई मूर्ख हो वही जैन शास्त्रके नाम से ठगा जाता है, तथा उसकी परम्परा भी नहीं चलती, शीघ्र ही कोई उन असत्यार्थ पदों का निषेध करता है । दूसरी बात यह है कि – ऐसे तीव्रकषायी जैनाभास यहाँ इस निकृष्ट कालमें ही होते हैं; उत्कृष्ट क्षेत्र-काल बहुत हैं, उनमें तो ऐसे होते नहीं। इसलिये जैन शास्त्रोंमें असत्यार्थ पदों की परम्परा नहीं चलती। - ऐसा निश्चय करना । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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