SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पहला अधिकार] [११ मन्दताके कारण अभ्यास होता नहीं। जैसे कि – दक्षिणमें गोम्मटस्वामीके निकट मूडबिद्री नगरमें धवल, महाधवल, जयधवल पाये जाते हैं परन्तु दर्शनमात्र ही हैं। तथा कितने ही ग्रंथ अपनी बुद्धि द्वारा अभ्यास करने योग्य पाये जाते हैं, उनमें भी कुछ ग्रंथों का ही अभ्यास बनता है। ऐसे इस निकृष्ट कालमें उत्कृष्ट जैनमतका घटना तो हुआ, परन्तु इस परम्परा द्वारा अब भी जैन शास्त्रोंमें सत्य अर्थ का प्रकाशन करने वाले पदोंका सद्भाव प्रवर्तमान है। अपनी बात हमने इस कालमें यहाँ अब मनुष्यपर्याय प्राप्त की। इसमें हमारे पूर्वसंस्कारसे व भले होनहारसे जैनशास्त्रों के अभ्यास करने का उद्यम हुआ जिससे व्याकरण, न्याय, गणित आदि उपयोगी ग्रंथोंका किंचित् अभ्यास करके टीकासहित समयसार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार, गोम्मटसार, लब्धिसार, त्रिलोकसार, तत्वार्थसूत्र इत्यादि शास्त्र और क्षपणासार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, अष्टपाहुड, आत्मानुशासन आदि शास्त्र और श्रावक-मुनिके आचारके प्ररूपक अनेक शास्त्र और सुष्ठुकथासहित पुराणादि शास्त्र - इत्यादि अनेक शास्त्र हैं, उनमें हमारे बुद्धि अनुसार अभ्यास वर्तता है; उससे हमें भी किंचित् सत्यार्थपदोंका ज्ञान हुआ पुनश्च , इस निकृष्ट समयमें हम जैसे मंदबुद्धियों से भी हीन बुद्धिके धनी बहुत जन दिखायी देते हैं। उन्हें उन पदोंका अर्थज्ञान हो, इस हेतु धर्मानुरागवश देशभाषामय ग्रंथ रचनेकी हमें इच्छा हुई है, इसलिये हम यह ग्रंथ बना रहें है। इसमें भी अर्थसहित उन्हीं पदोंका प्रकाशन होता है। इतना तो विशेष है कि - जिस प्रकार प्राकृत-संस्कृत शास्त्रोंमें प्राकृत-संस्कृत पद लिखे जाते हैं, उसी प्रकार यहाँ अपभ्रंशसहित अथवा यथार्थतासहित देशभाषारूप पद लिखते हैं; परन्तु अर्थमें व्यभिचार कुछ नहीं है। इस प्रकार इस ग्रंथपर्यन्त उन सत्यार्थपदों की परम्परा प्रवर्तती है। असत्यपद रचना प्रतिषेध यहाँ कोई पूछता है कि – परम्परा तो हमने इस प्रकार जानी; परन्तु इस परम्परा में सत्यार्थपदोंकी ही रचना होती आयी , असत्यार्थपद नहीं मिले , - ऐसी प्रतीति हमें कैसे हो ? उसका समाधान :- असत्यार्थपदों की रचना अति तीव्र कषाय हुए बिना नहीं बनती; क्योंकि जिस असत्यरचना से परम्परा अनेक जीवों का महा बुरा हो और स्वयं को ऐसी महाहिंसा के फलरूप नरक-निगोदमें गमन करना पड़े - ऐसा महाविपरीत कार्य तो Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy