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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [मोक्षमार्गप्रकाशक अब यहाँ जिनको नमस्कार किया उनके स्वरूप का चिन्तवन करते हैं : अरहंतोंका स्वरूप __ वहाँ प्रथम अरहंतोंके स्वरूपका विचार करते हैं :- जो गृहस्थपना त्यागकर, मुनिधर्म अंगीकार करके, निजस्वभावसाधन द्वारा चार घातिकर्मों का क्षय करके – अनंतचतुष्टयरूप विराजमान हुए; वहाँ अनंतज्ञान द्वारा तो अपने अनंतगुण-पर्याय सहित समस्त जीवादि द्रव्योंको युगपत् विशेषपने से प्रत्यक्ष जानते हैं, अनंतदर्शन द्वारा उनका सामान्य अवलोकन करते हैं, अनंतवीर्य द्वारा ऐसी सामर्थ्यको धारण करते हैं, अनंतसुख द्वारा निराकुल परमानन्द का अनुभव करते हैं। पुनश्च , जो सर्वथा सर्व राग-द्वेषादि विकारभावों से रहित होकर शांतरसरूप परिणमित हुए हैं; तथा क्षुधा-तृषादि समस्त दोषों से मुक्त होकर देवाधिदेवपने को प्राप्त हुए हैं; तथा आयुध-अंबरादिक व अंगविकारादिक जो काम-क्रोधादि निंद्यभावोंके चिन्ह उनसे रहित जिनका परम औदारिक शरीर हुआ है; तथा जिनके वचनोंसे लोकमें धर्मतीर्थ प्रवर्तता है, जिसके द्वारा जीवोंका कल्याण होता है; तथा जिनके लौकिक जीवोंको प्रभुत्व माननेके कारणरूप अनेक अतिशय और नानाप्रकारके वैभवका संयुक्तपना पाया जाता है; तथा जिनका अपने हितके अर्थ गणधर-इन्द्रादिक उत्तम जीव सेवन करते हैं। - ऐसे सर्वप्रकार से पूजने योग्य श्री अरहंतदेव हैं उन्हें हमारा नमस्कार हो । सिद्धोंका स्वरूप अब, सिद्धोंका स्वरूप ध्याते हैं :- जो गृहस्थ-अवस्थाको त्यागकर, मुनिधर्मसाधन द्वारा चार घातिकर्मोका नाश होने पर अनंतचतुष्टय भाव प्रगट करके, कुछ काल पीछे चार अघातिकर्मों के भी भस्म होने पर परम औदारिक शरीरको भी छोड़कर ऊर्ध्वगमन स्वभावसे लोकके अग्रभागमें जाकर विराजमान हुए; वहाँ जिनको समस्त परद्रव्योंका सम्बन्ध छूटनेसे मुक्त अवस्थाकी सिद्धि हुई, तथा जिनके चरम शरीरसे किंचित् न्यून पुरूषाकारवत् आत्मप्रदेशोंका आकार अवस्थित हुआ, तथा जिनके प्रतिपक्षी कर्मोंका नाश हुआ इसलिये समस्त सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शनादिक आत्मिक गुण सम्पूर्णतया अपने स्वभावको प्राप्त हुए हैं; तथा जिनके नोकर्मका सम्बन्ध दूर हुआ इसलिये समस्त अमूर्त्तत्वादिक आत्मिक धर्म प्रगट हुए हैं, तथा जिनके भावकर्मका अभाव हुआ इसलिये निराकुल आनन्दमय शुद्धस्वभावरूप परिणमन हो रहा है; तथा जिनके ध्यान द्वारा भव्य जीवोंको स्वद्रव्य-परद्रव्यका और औपाधिकभाव-स्वभावभावोंका विज्ञान होता है, जिसके द्वारा उन सिद्धोंके समान स्वयं होनेका साधन होता है। इसलिये साधने योग्य जो अपना शुद्धस्वरूप उसे दर्शानेको प्रतिबिम्ब समान हैं तथा जो कृतकृत्य हुए हैं इसलिये ऐसे ही अनंतकाल पर्यन्त रहते हैं। - ऐसे निष्पन्न हुए सिद्धभगवान को हमारा नमस्कार हो। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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