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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates उपादान-निमित्तकी चिट्ठी] [359 जोर नहीं चलता; बहुत कलबल करे परन्तु कुछ वश नहीं चलता; उसी प्रकार विशुद्धता की भी ऊर्ध्वता जाननी। इसलिये गर्भित शुद्धता कही है। वह गर्भितशुद्धता ग्रन्थिभेद होने पर मोक्षमार्गको चली; अपने स्वभावसे वर्धमानरूप हुई तब पूर्ण यथाख्यात प्रगट कहा गया। विशुद्धता कि जो ऊर्ध्वता वही उसकी शुद्धता। और सुन, जहाँ मोक्षमार्ग साधा वहाँ कहा कि - " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्ग:" और ऐसा भी कहा कि - “ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष:"। उसका विचार - चतुर्थ गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थानपर्यंत मोक्षमार्ग कहा; उसका विवरण - सम्यक्रूप ज्ञानधारा, विशुद्धरूप चारित्रधारा - दोनों धाराएँ मोक्षमार्ग को चलीं, वहाँ ज्ञानसे ज्ञान की शुद्धता, क्रिया से क्रियाकी शुद्धता है। यदि विशुद्धतामें शुद्धता है तो यथाख्यातरूप होती है। यदि विशुद्धतामें वह नहीं होती तो केवलीमें ज्ञानगुण शुद्ध होता, क्रिया अशुद्ध रहती; परन्तु ऐसा तो नहीं है। उसमें शुद्धता थी उससे विशुद्धता हुई है। यहाँ कोई कहे कि ज्ञान की शुद्धता से क्रिया शुद्ध हुई सो ऐसा नहीं है। कोई गुण किसी गुण के सहारे नहीं है, सब असहायरूप हैं। ___ और भी सुन - यदि क्रिया पद्धति सर्वथा अशुद्ध होती है तो अशुद्धताकी इतनी शक्ति नहीं है मोक्षमार्गको चले, इसलिये विशुद्धतामें यथाख्यात का अंश है, इसलिये वह अंश क्रम-क्रमसे पूर्ण हुई। __ हे भाई प्रश्नवाले, तूने विशुद्धतामें शुद्धता मानी या नहीं ? यदि तूने वह मानी, तो कुछ और कहने का काम नहीं; यदि तूने नहीं मानी तो तेरा द्रव्य इसीप्रकार परिणत हुआ है हम क्या करें? यदि मानी तो शाबाश! यह द्रव्यार्थिककी चौभंगी पूर्ण हुई। निमित्त-उपादान शुद्धशुद्धरूप विचार : अब पर्यायार्थिक की चौभंगी सुनो - एक तो वक्ता अज्ञानी, श्रोता भी अज्ञानी; वहाँ तो निमित्त भी अशुद्ध , उपादान भी अशुद्ध। दूसरा वक्ता अज्ञानी, श्रोता ज्ञानी; वहाँ निमित्त अशुद्ध और उपादान शुद्ध। तीसरा वक्ता ज्ञानी, श्रोता अज्ञानी; वहाँ निमित्त शद्ध और उपादान अशुद्ध। चौथा वक्ता ज्ञानी, श्रोता भी ज्ञानी; वहाँ तो निमित्त भी शुद्ध , उपादान भी शुद्ध। यह पर्यायार्थिककी चौभंगी सिद्ध की। इति निमित्त-उपादान शुद्धाशुद्धरूप विचार वचनिका। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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