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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates आठवाँ अधिकार] [२९७ परन्तु धर्मपद्धतिमें कर्मशत्रुको जीते उसका नाम 'जिन' जानना। यहाँ कर्मशत्रु शब्दको पहले जोड़नेसे जो अर्थ होता है वह ग्रहण किया अन्य नहीं किया, तथा जैसे 'प्राण धारण करे उसका नाम जीव' है। जहाँ जीवन-मरणका व्यवहार अपेक्षा कथन हो वहाँ तो इन्द्रियादि प्राण धारण करे वह जीव है; तथा द्रव्यादिकका निश्चय अपेक्षा निरूपण हो वहाँ चैतन्यप्राणको धारण करे वह जीव है। तथा जैसे - समय शब्द के अनेक अर्थ हैं; वहाँ आत्मा का नाम समय है, सर्व पदार्थ का नाम समय है, काल का नाम समय है, समयमात्र काल का नाम समय है, शास्त्रका नाम समय है, मत का नाम समय है। इसी प्रकार अनेक अर्थों में जैसा जहाँ सम्भव हो वैसा अर्थ वहाँ जान लेना। तथा कहीं तो अर्थ अपेक्षा नामादिक कहते हैं, कहीं रूढ़ी अपेक्षा नामादिक कहते हैं। जहाँ रूढ़ी अपेक्षा नामादिक लिखे हों वहाँ उनका शब्दार्थ ग्रहण नहीं करना; परन्तु उसका जो रूढ़ीरूप अर्थ हो वही ग्रहण करना। जैसे - सम्यक्त्वादिको धर्म कहा वहाँ तो यह जीव को उत्तम स्थान में धारण करता है इसलिये इसका नाम सार्थ है; तथा धर्मद्रव्य का नाम धर्म कहा वहाँ रूढ़ी नाम है, इसका अक्षरार्थ ग्रहण नहीं करना, परन्तु इस नाम की धारक एक वस्तु है ऐसा अर्थ ग्रहण करना। इसीप्रकार अन्यत्र जानना। तथा कहीं शब्दका जो अर्थ होता है वह तो ग्रहण नहीं करना, परन्तु वहाँ जो प्रयोजनभूत अर्थ हो वह ग्रहण करना। जैसे – कहीं किसी का अभाव कहा हो और वहाँ किंचित् सद्भाव पाया जाये तो वहाँ सर्वथा अभाव नहीं ग्रहण करना; किंचित् सद्भाव को गिनकर अभाव कहा है - ऐसा अर्थ जानना। सम्यग्दृष्टिके रागादिकका अभाव कहा, वहाँ इसीप्रकार अर्थ जानना। तथा नोकषाय का अर्थ तो यह है कि 'कषाय का निषेध'; परन्तु यह अर्थ ग्रहण नहीं करना; यहाँ तो क्रोधादि समान यह कषाय नहीं हैं, किंचित् कषाय हैं, इसलिये नोकषाय – ऐसा अर्थ ग्रहण करना। इसीप्रकार अन्यत्र जानना। तथा जैसे कहीं किसी युक्तिसे कथन किया हो, वहाँ प्रयोजन ग्रहण करना। समयसार कलश में यह कहा है कि “धोबी के दृष्टान्तवत् परभाव के त्यागकी दृष्टि यावत् प्रवृत्तिको प्राप्त नहीं हुई तावत् यह अनुभूति प्रगट हुई"; सो यहाँ यह प्रयोजन है कि परभावका त्याग होते ही अनुभूति प्रगट होती है। लोक में किसी के आते ही कोई कार्य हुआ हो, वहाँ ऐसा कहते हैं कि 'यह आया ही नहीं और यह ऐसा कार्य हो गया।' ऐसा ही प्रयोजन यहाँ ग्रहण करना। इसीप्रकार अन्यत्र जानना। १ अवतरति न याववृत्तिमअत्यन्तवेगादनवमपरभावत्यागदृष्टान्तदृष्टिः । झटिति सकलभावैरन्यदीयैर्विमुक्ता स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव ।। २९ ।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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