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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates अठवाँ अधिकार] [२८३ __ तथा व्रती जीव त्याग व आचरण करता है सो चरणानुयोगकी पद्धति अनुसार व लोक प्रवृत्तिके अनुसार त्याग करता है। जैसे - किसी ने त्रसहिंसा का त्याग किया, वहाँ चरणानुयोगमें व लोक में जिसे त्रसहिंसा कहते हैं उसका त्याग किया है, केवलज्ञानादि द्वारा जो त्रस देखे जाते हैं उनकी हिंसा का त्याग बनता ही नहीं। वहाँ जिस त्रस हिंसाका त्याग किया, उसरूप मन का विकल्प न करना सो मन से त्याग है, वचन न बोलना सो वचन से त्याग है, काय द्वारा नहीं प्रवर्तना सो काय से त्याग है। इसप्रकार अन्य त्याग व ग्रहण होता है सो ऐसी पद्धति सहित ही होता है ऐसा जानना। यहाँ प्रश्न है कि करणानुयोग में तो केवलज्ञान अपेक्षा तारतम्य कथन है, वहाँ छठवें गुणस्थान में सर्वथा बारह अविरतियोंका अभाव कहा, सो किस प्रकार कहा? ___ उत्तर :- अविरति भी योग कषायमें गर्भित थी, परन्तु वहाँ भी चरणानुयोग की अपेक्षा त्यागका अभाव उसही का नाम अविरति कहा है, इसलिये वहाँ उनका अभाव है। मन-अविरतिका अभाव कहा, सो मुनिको मन के विकल्प होते हैं; परन्तु स्वेच्छाचारी मन की पापरूप प्रवृत्तिके अभाव से मन-अविरतिका अभाव कहा है - ऐसा जानना। तथा चरणानुयोगमें व्यवहार-लोक-प्रवृत्ति की अपेक्षा ही नामादिक कहते हैं। जिस प्रकार सम्यक्त्वीको पात्र कहा तथा मिथ्यात्वीको अपात्र कहा; सो यहाँ जिसके जिनदेवादिकका श्रद्धान पाया जाये वह तो सम्यक्त्वी, जिसके उनका श्रद्धान नहीं है वह मिथ्यात्वी जानना। क्योंकि दान देना चरणानुयोगमें कहा है, इसलिये चरणानुयोगके ही सम्यक्त्व-मिथ्यात्व ग्रहण करना। करणानुयोगकी अपेक्षा सम्यक्त्व-मिथ्यात्व ग्रहण करने से वही जीव ग्यारहवें गुणस्थानमें था और वही अन्तर्मुहूर्तमें पहले गुणस्थानमें आये , तो वहाँ दातार पात्र-अपात्रका कैसे निर्णय कर सके ? तथा द्रव्यानुयोगकी अपेक्षा सम्यक्त्व-मिथ्यात्व ग्रहण करनेपर मुनिसंघमें द्रव्यलिंगी भी हैं और भावलिंगी भी हैं सो प्रथम तो उनका ठीक (निर्णय ) होना कठिन है; क्योंकि बाह्य प्रवृत्ति समान है; तथा यदि कदाचित् सम्यक्त्वी को किसी चिन्ह द्वारा ठीक (निर्णय) हो जाये और वह उसकी भक्ति न करे तो औरोंको संशय होगा कि इसकी भक्ति क्यों नहीं की ? इसप्रकार उसका मिथ्यादृष्टिपना प्रगट हो तब संघमें विरोध उत्पन्न हो; इसलिये यहाँ व्यवहार सम्यक्त्व-मिथ्यात्व की अपेक्षा कथन जानना। यहाँ कोई प्रश्न करे – सम्यक्त्वी तो द्रव्यलिंगीको अपने से हीनगुणयुक्त मानता है, उसकी भक्ति कैसे करें ? समाधान :- व्यवहार धर्मका साधन द्रव्यलिंगीके बहुत है और भक्ति करना भी व्यवहार है। इसलिये जैसे – कोई धनवान हो, परन्तु जो कुलमें बड़ा हो उसे कुल अपेक्षा Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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