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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २८२] [ मोक्षमार्गप्रकाशक तथा चरणानुयोगमें छद्मस्थकी बुद्धिगोचर स्थूलपने की अपेक्षा से लोकप्रवृत्तिकी मुख्यता सहित उपदेश देते हैं; परन्तु केवलज्ञानगोचर सूक्ष्मपने की अपेक्षा नहीं देते; क्योंकि उसका आचरण नहीं हो सकता। यहाँ आचरण करनेका प्रयोजन है। जैसे - अणुव्रती के त्रस हिंसा का त्याग कहा है और उसके स्त्री-सेवनादि क्रियाओंमें त्रसहिंसा होती है। यह भी जानता है कि जिनवाणीमें यहाँ त्रस कहे हैं; परन्तु इसके त्रस मारने का अभिप्राय नहीं है, और लोकमें जिसका नाम त्रस घात है उसे नहीं करता है; इसलिये उस अपेक्षा उसके त्रसहिंसाका त्याग है। तथा मुनिके स्थावरहिंसाका भी त्याग कहा है; परन्तु मुनि पृथ्वी, जलादिमें गमनादि करते हैं वहाँ सर्वथा त्रसका भी अभाव नहीं है; क्योंकि त्रस जीवोंकी भी अवगाहना इतनी छोटी होती है कि जो दृष्टिगोचर न हो और उनकी स्थिति पृथ्वी जलादिमें ही है - ऐसा मुनि जिनवाणीसे जानते हैं व कदाचित् अवधिज्ञानादि द्वारा भी जानते हैं; परन्तु उनके प्रमादसे स्थावर-त्रसहिंसाका अभिप्राय नहीं है। तथा लोक में भूमि खोदना तथा अप्रासुक जलसे क्रिया करना इत्यादि प्रवृत्तिका नाम स्थावरहिंसा है, और स्थूल त्रसजीवोंको पीड़ित करने का नाम त्रस हिंसा है - उसे नहीं करते; इसलिये मुनि को सर्वथा हिंसाका त्याग कहते हैं। तथा इसी प्रकार असत्य, स्तेय, अब्रह्म, परिग्रहका त्याग कहा है। केवलज्ञानके जानने की अपेक्षा तो असत्यवचनयोग बारहवें गुणस्थानपर्यन्त कहा है, अदत्तकर्मपरमाणु आदि परद्रव्य का ग्रहण तेरहवें गुणस्थानपर्यन्त हैं, वेदका उदय नववें गुणस्थान पर्यन्त है, अंतरंग परिग्रह दसवें गुणस्थानपर्यन्त है, बाह्यपरिग्रह समवसरणादि केवलीके भी होता है; परन्तु ( मुनि को) प्रमादसे पापरूप अभिप्राय नहीं है, और लोक प्रवृत्तिमें जिन क्रियाओं द्वारा ‘यह झूठ बोलता है, चोरी करता है, कुशील सेवन करता है, परिग्रह रखता है' - इत्यादि नाम पाता है, वे क्रियाएँ इनके नहीं हैं; इसलिये असत्यादिका इनके त्याग कहा जाता है। तथा जिस प्रकार मुनि के मूलगुणोंमें पंचेन्द्रियोंके विषयका त्याग कहा है; परन्तु इन्द्रियोंका जानना तो मिटता नहीं है, और विषयोंमें राग-द्वेष सर्वथा दूर हुआ हो तो यथाख्यातचारित्र हो जाये सो हुआ नहीं है; परन्तु स्थूलरूप से विषयेच्छाका अभाव हुआ है और बाह्यविषयसामग्री मिलाने की प्रवृत्ति दूर हुई है; इसलिये उनके इन्द्रियविषयका त्याग कहा है। इसीप्रकार अन्यत्र जानना। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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