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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates बहुत परेशानी उठाने के बाद भी, यहाँ तक की एक व्यक्ति की जान भी चली गई, उन्हें उक्त शास्त्र प्राप्त करने में सफलता नहीं मिली; किन्तु उन्होंने प्रयास करना नहीं छोड़ा। ब्र० रायमल इसी संर्धभमें आगे लिखते हैं : “धवलादि सिद्धान्त तौ उहां भी बचै नांही है। दर्शन मात्र ही है उहाँ वाकी यात्रा जुरै है .ई देशमें सिद्धान्तांका आगमन हुवा नाहीं। रुपया हजार दोय २०००] पांच-सात आदम्यांकै जाबै-आबै खडचि पड्या। एक साधर्मी डालूरामकी उहां ही पर्याय पूरी हुई।. .. बहुरि या बात के उपाय करनेमैं बरस च्यारिपाँच लागा। पाँच विश्वा औरुं भी उपाय वर्ते है। औरंगाबादसूं सौ कोस परै एक मलयखेड़ा है तहां भी तीनूँ सिद्धान्त बिराजै है। मलयखेड़ाघ्र सिद्धान्त मंगायबेका उपाय है। सो देखियए ए कार्य वणनेंविषै कठिनता विशेष है ।” अध्ययन और ध्यान यही उनकी साधना थी। निरन्तर आध्यात्मिक अध्ययन, चिन्तन, मननके फल स्वरूप 'मैं टोडरमल हूँ' की अपेक्षा 'मैं जीव हूँ' की अनुभूति उनमें अधिक प्रबल हो उठी थी। यही कारण है कि जब वे 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका प्रशस्ति' में अपना परिचय देने लगे तो सहज ही लिखा गया : मैं हूँ जीव-द्रव्य नित्य चेतना स्वरूप मेर्यो, लग्यो है अनादितै कलंक कर्म मल कौ । ताहिको निमित्त पाय रागादिक भाव भये, भयो है शरीरको मिलाप जैसे खक कौ ।। रागादिक भावनिको पायकें निमित्त पुनि, होत कर्मबन्ध ऐसे है बनाव जैसे कल कौ। ऐसें ही भ्रमत भयो मानुष शरीर जोग, बनें तो बनें यहां उपाव निज थल कौ ।। ३६ ।। रम्भापति स्तुत गुण जनक, जाको जोगीदास । सोई मेरो प्रान है, धारै प्रगट प्रकाश ।। ३७ ।। इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पत्रिका [ पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व, परिशिष्ट १] Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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