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________________ १६४] Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रत्यक्ष दर्शन न होनेसे आकार बनाकर पूजनादि करते हैं। इस धर्मानुरागसे महापुण्य होता है। तथा ऐसा कुतर्क करते हैं कि जिसके जिस वस्तुका त्याग हो उसके आगे उस वस्तुका रखना हास्य करना है; इसलिये चंदनादि द्वारा अरहन्तकी पूजन युक्त नहीं है। - समाधान :- मुनिपद लेते ही सर्व परिग्रह त्याग किया था, केवलज्ञान होनेके पश्चात् तीर्थंकरदेवके समवशरणादि बनाये, छत्र - चँवरादि किये सो हास्य किया या भक्ति की ? हास्य किया तो इन्द्र महापापी हुआ; सो बनता नहीं है । भक्ति की तो पूजनादिकमें भी भक्ति ही करते हैं। छद्मस्थके आगे त्याग की हुई वस्तु रखना हास्य करना है; क्योंकि उसके विक्षिप्तता हो आती है । केवलीके व प्रतिमाके आगे अनुरागसे उत्तम वस्तु रखनेका दोष नहीं है; उनके विक्षिप्तता नहीं होती । धर्मानुरागसे जीवका भला होता है। - फिर वे कहते हैं प्रतिमा बनानेमें, चैत्यालयादि करानेमें, पूजनादि करानेमें हिंसा होती है, और धर्म अहिंसा है; इसलिये हिंसा करके धर्म माननेसे महापाप होता है; इसलिये हम इन कार्योंका निषेध करते हैं। उत्तर :- उन्हींके शास्त्रमें ऐसा वचन है : - [ मोक्षमार्गप्रकाशक सुच्चा जाणइ कल्लाणं सुच्चा जाणइ पावगं । उभयं पि जाणए सुच्चा जं सेय तं समायर ॥१॥ यहाँ कल्याण, पाप और उभय यह तीनों शास्त्र सुनकर जाने, ऐसा कहा है। सो उभय तो पाप और कल्याण मिलनेसे होगा, सो ऐसे कार्यका भी होना ठहरा। वहाँ पूछते हैं केवल धर्मसे तो उभय हल्का है ही, और केवल पापसे उभय बुरा है या भला है ? यदि बुरा है तो इसमें तो कुछ कल्याणका अंश मिला है, पापसे बुरा कैसे कहें ? भला है, तो केवल पापको छोड़कर ऐसे कार्य करना ठहरा । तथा युक्तिसे भी ऐसा ही सम्भव है। कोई त्यागी होकर मन्दिरादिक नहीं बनवाता है व सामयिकादिक निरवद्य कार्योंमें प्रवर्त्तता है; तो उन्हें छोड़कर प्रतिमादि कराना व पूजनादि करना उचित नहीं हैं परन्तु कोई अपने रहने के लिए मकान बनाये, उससे तो चैत्यालयादि करानेवाला हीन नहीं है। हिंसा तो हुई, परन्तु उसके तो लोभ पापानुरागकी वृद्धि हुई और इसके लोभ छूटकर धर्मानुराग हुआ। तथा कोई व्यापारादि कार्य करे, उससे तो पूजनादि कार्य करना हीन नहीं है । वहाँ तो हिंसादि बहुत होते हैं, लोभादि बढ़ता है, पापहीकी प्रवृत्ति है। यहाँ हिंसादिक भी किंचित् होते हैं, लोभादिक घटते हैं और धर्मानुराग बढ़ता है। - Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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