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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाँचवा अधिकार] [१६३ तथा वे ऐसा कहते हैं - देवोंके ऐसा कार्य है, मनुष्योंके नहीं है; क्योंकि मनुष्योंको प्रतिमा आदि बनाने में हिंसा होती है। तो उन्हींके शास्त्रोंमें ऐसा कथन है कि-द्रौपदी रानी प्रतिमाजीके पूजनादिक जैसे सूर्याभदेवने किये उसी प्रकार करने लगी; इसलिये मनुष्योंके भी ऐसा कार्य कर्त्तव्य है। यहाँ एक यह विचार आया कि - चैत्यालय, प्रतिमा बनानेकी प्रवृत्ति नहीं थी तो द्रौपदीने किस प्रकार प्रतिमाका पूजन किया ? तथा प्रवृत्ति थी तो बनानेवाले धर्मात्मा थे या पापी थे ? यदि धर्मात्मा थे तो गृहस्थोंको ऐसा कार्य करना योग्य हुआ, और पापी थे तो वहाँ भोगादिकका प्रयोजन तो था नहीं, किसलिये बनाया ? तथा द्रौपदीने वहाँ “ णमोत्थुणं" का पाठ किया व पूजनादि किया , सो कुतूहल किया या धर्म किया ? यदि कुतूहल किया तो महापापिनी हुई। धर्ममें कुतूहल कैसा ? और धर्म किया तो औरोंको भी प्रतिमाजीकी स्तुति-पूजा करना युक्त है। ___ तथा वे ऐसी मिथ्यायुक्ति बनाते हैं - जिस प्रकार इन्द्रकी स्थापनासे इन्द्रका कार्य सिद्ध नहीं है; उसी प्रकार अरहंत प्रतिमासे कार्य सिद्ध नहीं है। सो अरहंत किसीको भक्त मानकर भला करते हों तब तो ऐसा भी मानें; परन्तु वे तो वीतराग हैं। यह जीव भक्तिरूप अपने भावोंसे शुभफल प्राप्त करता है। जिस प्रकार स्त्रीके आकाररूप काष्ट-पाषाणकी मूर्ति देखकर वहाँ विकाररूप होकर अनुराग करे तो उसको पापबन्ध होगा; उसी प्रकार अरहंतके आकाररूप धातु-पाषाणादिककी मूर्ति देखकर धर्मबुद्धिसे वहाँ अनुराग करे तो शुभकी प्राप्ति कैसे न होगी ? वहाँ वे कहते हैं – बिना प्रतिमा ही हम अरहंतमें अनुराग करके शुभ उत्पन्न करेंगे; तो इनसे कहते है - आकार देखनेसे जैसा भाव होता है वैसा परोक्ष स्मरण करनेसे नहीं होता; इसी से लोकमें भी स्त्रीके अनुरागी स्त्रीका चित्र बनाते हैं; इसलिये प्रतिमाके अवलम्बन द्वारा भक्ति विशेष होनेसे विशेष शुभकी प्राप्ति होती है। फिर कोई कहे प्रतिमाको देखो, परन्तु पूजनादिक करनेका क्या प्रयोजन है ? उत्तर :- जैसे कोई किसी जीवका आकार बनाकर घात करे तो उसे उस जीवकी हिंसा करने जैसा पाप होता है, व कोई किसीका आकार बनाकर द्वेषबुद्धिसे उसकी बुरी अवस्था करे तो जिसका आकार बनाया उसकी बुरी अवस्था करने जैसा फल होता है; उसी प्रकार अरहंतका आकार बनाकर धर्मानुरागबुद्धिसे पूजनादि करे तो अरहंतके पूजनादि करने जैसा शुभ (भाव) उत्पन्न होता है तथा वैसा ही फल होता है। अति अनुराग होनेपर Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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