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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाँचवा अधिकार] [१५३ ममत्व नहीं है तो कैसे ग्रहण करते हैं ? इसलिए वस्त्रादिकका ग्रहण-धारण छूटेगा तभी निष्परिग्रह होगा। फिर कहोगे - वस्त्रादिकको कोई ले जाये तो क्रोध नहीं करते व क्षुधादिक लगे तो उन्हें बेचते नहीं हैं व वस्त्रादिक पहिनकर प्रमाद नहीं करते हैं; परिणामोंकी स्थिरता द्वारा धर्म ही साधन करते हैं, इसलिए ममत्व नहीं है। सो बाह्य क्रोध भले न करो, परन्तु जिसके ग्रहणमें इष्टबुद्धि होगी उसके वियोगमें अनिष्टबुद्धि होगी ही होगी। यदि इष्टबुद्धि नहीं है तो उसके अर्थ याचन किसलिये करते हैं ? तथा बेचते नहीं हैं, सो धातु रखनेसे अपनी हीनता जानकर नहीं बेचते। परन्तु जिसप्रकार धनादिका रखना है उसी प्रकार वस्त्रादिका रखना है। लोकमें परिग्रहके चाहक जीवोंको दोनोकी इच्छा है; इसलिए चोरादिकके भयादिकके कारण दोनों समान हैं। तथा परिणामोंकी स्थिरता द्वारा धर्म साधनही से परिग्रहपना न हो, तो किसीको बहुत ठंड लगेगी वह रजाई रखकर परिणामोंकी स्थिरता करेगा और धर्म साधेगा; सो उसे भी निष्परिग्रह कहो ? इस प्रकार गृहस्थधर्म-मुनिधर्म में विशेष क्या रहेगा? जिसके परिषह सहनेकी शक्ति न हो, वह परिग्रह रखकर धर्म साधन करे उसका नाम गृहस्थधर्म; और जिसके परिणमन निर्मल होनेसे परिषहसे व्याकुल नहीं होते, वह परिग्रह न रखें और धर्म साधन करे उसका नाम मुनिधर्म – इतना ही विशेष है। फिर कहोगे - शीतादिके परिषहसे व्याकुल कैसे नहीं होंगे? परन्तु व्याकुलता तो मोहउदयके निमित्तसे है; और मुनिके छठवें आदि गुणस्थानोंमें तीन चौकड़ीका उदय नहीं है तथा संज्वलनके सर्वघाती स्पर्द्धकोंका उदय नहीं है, देशघाती स्पर्द्धकोंका उदय है सो उनका कुछ बल नहीं है। जैसे वेदक सम्यग्दृष्टिको सम्यग्मोहनीयका उदय है, परन्तु सम्यक्त्वका घात नहीं कर सकता; उसी प्रकार देशघाती संज्वलनका उदय परिणामों को व्याकुल नहीं कर सकता। अहो! मुनियोंके और दूसरोंके परिणामोंकी समानता नहीं है। और सबके सर्वघाती उदय है, इनके देशघातीका उदय है इसलिये दूसरोंके जैसे परिणाम होते वैसे इनके कदाचित् नहीं होते। जिनके सर्वघाती कषायोंका उदय हो वे गृहस्थ ही रहते हैं और जिनके देशघातीका उदय हो वे मुनिधर्म अंगीकार करते हैं; उनके परिणाम शीतादिकसे व्याकल नहीं होते. इसलिये वस्त्रादिक नहीं रखते। फिर कहोगे - जैनशास्त्रोंमें मुनि चौदह उपकरण रखे – ऐसा कहा है; सो तुम्हारे ही शास्त्रोंमें कहा है, दिगम्बर जैनशास्त्रोंमें तो कहा नहीं है; वहाँ तो लँगोट मात्र परिग्रह रहने पर भी ग्यारहवीं प्रतिमाके धारीको श्रावक ही कहा है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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