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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १५२] [ मोक्षमार्गप्रकाशक तथा हाटमें समवसरण उतरा कहते हैं, सो इन्द्रकृत समवसरण हाटमें किस प्रकार रहेगा ? इतनी रचनाका समावेश वहाँ कैसे होगा ? तथा हाटमें किसलिये रहें ? क्या इन्द्र हाट जैसी रचना करनेमें भी समर्थ नहीं है, जिससे हाटका आश्रय लेना पड़े ? तथा कहते हैं - केवली उपदेश देनेको गये सो घर जाकर उपदेश देना अतिरागसे होता है और वह मुनिके भी सम्भव नहीं है तो केवलीके कैसे होगा ? इसी प्रकार वहाँ अनेक विपरीतता प्ररूपित करते हैं। केवली शुद्ध केवलज्ञान-दर्शनमय रागादिरहित हुए हैं, उनके अघातियोंके उदयसे संभवित क्रिया कोई होती है; परन्तु उनके मोहादिकका अभाव हुआ है, इसलिये उपयोग जुड़नेसे जो क्रिया हो सकती है वह सम्भव नहीं है। पाप प्रकृतिका अनुभाग अत्यन्त मंद हुआ है, ऐसा मंद अनुभाग अन्य किसीके नहीं है; इसलिये अन्य जीवोंके पाप उदयसे जो क्रिया होती देखी जाती है, वह केवलीके नहीं होती। इस प्रकार केवली भगवानके सामान्य मनुष्य जैसी क्रियाका सद्भाव कहकर देवके स्वरूपको अन्यथा प्ररूपित करते हैं। गुरुका अन्यथा स्वरूप तथा गुरुके स्वरूपको अन्यथा प्ररूपित करते हैं। मुनिके वस्त्रादिक चौदह उपकरण कहते हैं सो हम पूछते हैं- मुनिको निर्ग्रन्थ कहते हैं, और मुनिपद लेते समय नव प्रकारके सर्व परिग्रहका त्याग करके महाव्रत अंगीकार करते हैं; सो यह वस्त्रादिक परिग्रह हैं या नहीं? यदि हैं तो त्याग करनेके पश्चात् किसलिये रखते हैं ? और नहीं हैं तो वस्त्रादिक गृहस्थ रखते हैं, उन्हें भी परिग्रह मत कहो ? सुवर्णादिकको परिग्रह कहो। तथा यदि कहोगे - जिस प्रकार क्षुधाके अर्थ आहार ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार शीत-उष्णतादिकके अर्थ वस्त्रादिक ग्रहण करते हैं; परन्तु मुनिपद अंगीकार करते हुए आहारका त्याग नहीं किया है, परिग्रहका त्याग किया है। तथा अन्नादिकका संग्रह करना तो परिग्रह है, भोजन करने जायें वह परिग्रह नहीं है। तथा वस्त्रादिकका संग्रह करना व पहिनना वह सर्वत्र ही परिग्रह है सो लोकमें प्रसिद्ध है। फिर कहोगे - शरीरकी स्थितिके अर्थ वस्त्रादिक रखते हैं; ममत्व नहीं है इससे इनको परिग्रह नहीं कहते, सो श्रद्धानमें तो जब सम्यग्दृष्टि हुआ तभी समस्त परद्रव्योंमें ममत्वका अभाव हुआ; उस अपेक्षासे चौथा गुणस्थान ही परिग्रह रहित कहो। तथा प्रवृत्तिमें १.पटलिका चोलपटा . वृहत्क १ पात्र-१, पात्रबन्ध-२, पात्रकेसरीकर-३, पटलिकाएँ-४-५, रजस्त्राण-६ गोच्छक-७, रजोहरण-८, मुखवस्त्रिका-९, दो सूती कपड़े १०-११, एक ऊनी कपड़ा-१२, मात्रक-१३, चोलपट्ट-१४ । -देखो, वृहत्क० शु० उ० ३ भा० गा० ३९६२ से३९६५ तक Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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