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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १३८] [मोक्षमार्गप्रकाशक आकुलता मिटनेसे स्तुति योग्य होता है। जिससे आगामी भला होना केवल हमही नहीं कहते, किन्तु सभी मतवाले कहते हैं। सरागभाव होनेपर तत्काल आकुलता होती है, निंदनीक होता है, और आगामी बुरा होना भासित होता है। इसलिये जिसमें वीतरागभावका प्रयोजन है ऐसा जैनमत ही इष्ट हैं। जिनमें सरागभावके प्रयोजन प्रगट किये हैं ऐसे अन्यमत अनिष्ट हैं इन्हें समान कैसे माने ? तथा वह कहते हैं कि- यह तो सच है; परन्तु अन्यमतकी निन्दा करनेसे अन्यमती दुःखी होंगे विरोध उत्पन्न होगा; इसलिये निन्दा किसलिये करें ? वहाँ कहते हैं कि - हम कषायसे निन्दा करें व औरोंको दुःख उपजायें तो हम पापी ही हैं; परन्तु अन्यमतके श्रद्धानादिसे जीवोंके अतत्त्वश्रद्धान दृढ़ हो, जिससे संसारमें जीव दुःखी होंगे, इसलिये करुणाभावसे यथार्थ निरूपण किया है। कोई बिना दोष दुःख पाता हो, विरोध उत्पन्न करे तो हम क्या करें? जैसे - मदिराकी निन्दा करनेसे कलाल दु:खी हो, कुशीलकी निन्दा करनेसे वेश्यादिक दुःख पायें, और खोटा-खरा पहिचाननेकी परीक्षा बतलानेसे ठग दुःखी हो तो क्या करें? इसी प्रकार यदि पापियोंके भयसे धर्मोपदेश न दें तो जीवोंका भला कैसे होगा? ऐसा तो कोई उपदेश है नहीं जिससे सभी चैन पायें ? तथा वे विरोध उत्पन्न करते हैं; सो विरोध तो परस्पर करें तो होता है; परन्तु हम लड़ेंगे नहीं, वे आप ही उपशान्त हो जायेंगे। हमें तो अपने परिणामों का फल होगा । तथा कोई कहे - प्रयोजनभूत जीवादिक तत्त्वोंका अन्यथा श्रद्धान करनेसे मिथ्यादर्शनादिक होते हैं, अन्यमतोंका श्रद्धान करनेसे किस प्रकार मिथ्यादर्शनादिक होंगे? समाधान - अन्यमतोंमें विपरीत युक्ति बनाकर, जीवादिक तत्त्वोंका स्वरूप यथार्थ भासित न हो यही उपाय किया है; सो किसलिये किया है ? जीवादि तत्त्वोंका यथार्थ स्वरूप भासित हो तो वीतरागभाव होनेपर ही महंतपना भासित हो; परन्तु जो जीव वीतरागी नहीं हैं और अपनी महंतता चाहते हैं, उन्होंने सरागभाव होनेपर भी महंतता मनाने के अर्थ कल्पित युक्ति द्वारा अन्यथा निरूपण किया है। वे अद्वैतब्रह्मादिकके निरूपण द्वारा जीवअजीवके और स्वच्छन्दवृत्तिके पोषण द्वारा आस्रव-संवरादिकके और सकषायीवत् व अचेतनवत् मोक्ष कहने द्वारा मोक्ष के अयथार्थ श्रद्धानका पोषण करते हैं; इसलिये अन्यमतोंका अन्यथापना प्रगट किया है। इनका अन्यथापना भासित हो तो तत्त्वश्रद्धानमें रुचिवान हो, और उनकी युक्तिसे भ्रम उत्पन्न न हो। इस प्रकार अन्यमतोंका निरूपण किया। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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