SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.Atma Dharma.com for updates पाँचवा अधिकार ] [ १३७ उससे कहते हैं यदि प्रयोजन एक हो तो नाना मत किसलिये कहें ? एकमतमें तो एक प्रयोजनसहित अनेक प्रकार व्याख्यान होता है, उसे अलग मत कौन कहता है ? परन्तु प्रयोजन ही भिन्न-भिन्न हैं सो बतलाते हैं : अन्यमतोंसे जैनमतकी तुलना जैनमतमें एक वीतरागभावके पोषणका प्रयोजन है; सो कथाओंमें, लोकादिकके निरूपणमें, आचरणमें, व तत्त्वोंमें जहाँ-तहाँ वीतरागताकी ही पुष्टि की है। तथा अन्यमतों में सरागभावके पोषणका प्रयोजन है; क्योंकि कल्पित रचना कषायी जीव ही करते हैं और अनेक युक्तियाँ बनाकर कषायभावही का पोषण करते हैं। जैसे अद्वैत ब्रह्मवादी सर्वको ब्रह्म मानने द्वारा, सांख्यमती सर्व कार्य प्रकृतिका मानकर अपनेको शुद्ध अकर्त्ता मानने द्वारा, और शिवमती तत्त्व जाननेहीसे सिद्धि होना मानने द्वारा, मीमांसक कषायजनित आचरणको धर्म मानने द्वारा, बौद्ध क्षणिक मानने द्वारा, चार्वाक परलोकादि न मानने द्वारा विषयभोगादिरूप कषायकार्योंमें स्वच्छंन्द होनेका ही पोषण करते हैं। यद्यपि किसी स्थानपर कोई कषाय घटानेका भी निरूपण करते हैं; तो उस छलसे अन्य किसी कषायका पोषण करते हैं। जिस प्रकार गृहकार्य छोड़कर परमेश्वरका भजन करना ठहराया और परमेश्वरका स्वरूप सरागी ठहराकर उनके आश्रयसे अपने विषय - कषायका पोषण करते हैं; तथा जैनधर्ममें देव-गुरु-धर्मादिकका स्वरूप वीतराग ही निरूपण करके केवल वीतरागताही का पोषण करते हैं - सो यह प्रगट है । - १ हम क्या कहें? अन्यमती भर्तृहरिने भी वैराग्य प्रकरणमें ऐसा कहा है : १ एको रागिषु राजते प्रियतमादेहार्द्धधारी हरो, नीरागेषु जिनो विमुक्तललनासङ्गो न यस्मात्परः । दुर्वारस्मरवाणपन्नगविषव्यासक्तमुग्धो जनः, शेषः कामविडंबितो हि विषयान्भोक्तुं न मोक्तुं क्षमः ।।१।। इसमें सरागियोंमें महादेवको प्रधान कहा और वीतरागियोंमें जिनदेवको प्रधान कहा है। तथा सरागभाव और वीतरागभावों में परस्पर प्रतिपक्षीपना है। यह दोनो भले नहीं हैं; परन्तु इनमें एक ही हितकारी है और वह वीतरागभाव ही है; जिसके होनेसे तत्काल रागी पुरुषोंमें तो एक महादेव शोभित होता है जिसने अपनी प्रियतमा पार्वतीको आधे शरीरमें धारण कर रखा है। और वीतरागियोंमें जिनदेव शोभित हैं जिनके समान स्त्रियोंका संग छोड़ने वाला दूसरा कोई नहीं है। शेष लोग तो दुर्निवार कामदेवके बाणरूप सर्पोंके विषसे मूर्छित हुए हैं जो कामकी विडम्बनासे न तो विषयोंको भलीभाँति भोग ही सकते हैं और न छोड़ ही सकते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy