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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १२२] [ मोक्षमार्गप्रकाशक तथा कोई ललाट, भ्रमर और नासिकाके अग्रको देखने के साधन द्वारा त्रिकुटी आदिका ध्यान हुआ कहकर परमार्थ मानता है। वहाँ नेत्र की पुतली फिरनेसे मूर्त्तिक वस्तु देखी, उसमें क्या सिद्धि है ? तथा ऐसे साधनसे किंचित् अतीत-अनागतादिकका ज्ञान हो, व वचनसिद्धि हो, व पृथ्वी-आकाशादिमें गमनादिककी शक्ति हो, व शरीरमें आरोग्यतादिक हो तो यह तो सर्व लौकिक कार्य है; देवादिकको स्वयमेव ही ऐसी शक्ति पायी जाती है। इनसे कुछ अपना भला तो होता नहीं है; भला तो विषयकषाय की वासना मिटने पर होता है; यह तो विषयकषायका पोषण करने के उपाय हैं; इसलिये यह सर्व साधन किंचित् भी हितकारी नहीं हैं। इनमें कष्ट बहत मरणादि पर्यन्त होता है और हित सधता नहीं है; इसलिये ज्ञानी वृथा ऐसा खेद नहीं करते, कषायी जीव ही ऐसे साधन में लगते हैं। ___ तथा किसी को बहुत तपश्चरणादिक द्वारा मोक्षका साधन कठिन बतलाते हैं, किसी को सुगमता से ही मोक्ष हुआ कहते हैं। उद्धवादिकको परम भक्त कहकर उन्हें तो तपका उपदेश दिया कहते हैं और वेश्यादिकको बिना परिणाम (केवल) नामादिक ही से तरना बतलाते हैं, कोई ठिकाना ही नहीं है। इस प्रकार मोक्षमार्गको अन्यथा प्ररूपित करते हैं। अन्यमत कल्पित मोक्षमार्गकी मीमांसा तथा मोक्षस्वरूप को भी अन्यथा प्ररूपित करते हैं। वहाँ मोक्ष अनेक प्रकार से बतलाते हैं। एक तो मोक्ष ऐसा कहते हैं कि - वैकुण्ठधाममें ठाकुर-ठकुरानी सहित नाना भोग विलास करते हैं, वहाँ पहुँच जाये और उनकी सेवा करता रहे सो मोक्ष है; सो यह तो विरुद्ध है। प्रथम तो ठाकुर ही संसारीवत् विषयासक्त हो रहे हैं; सो जैसे राजादिक हैं वैसे ही ठाकुर हुए। तथा दूसरोंसे सेवा करानी पड़ी तब ठाकुर के पराधीनपना हुआ। और यदि वह मोक्ष प्राप्त करके वहाँ सेवा करता रहे तो जिस प्रकार राजा की चाकरी करना उसी प्रकार यह भी चाकरी हुई, वहाँ पराधीन होने पर सुख कैसे होगा ? इसलिये यह भी नहीं बनता। तथा एक मोक्ष ऐसा कहते हैं – ईश्वरके समान आप होता है; सो भी मिथ्या है। यदि उसके समान और भी अलग होते हैं तो बहुत ईश्वर हुए। लोक का कर्ता-हर्ता कौन ठहरेगा ? सभी ठहरें तो भिन्न इच्छा होनेपर परस्पर विरोध होगा। एक ही है तो समानता नहीं हुई। न्यून है उसको नीचेपनसे उच्च होने की आकुलता रही; तब सुखी कैसे होगा? जिस प्रकार छोटा राजा या बड़ा राजा संसार में होता है; उसी प्रकार छोटा-बड़ा ईश्वर मुक्तिमें भी हुआ सो नहीं बनता। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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