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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाँचवा अधिकार] [१२१ कार्य है, कहीं मोक्षमार्ग नहीं है। जीवोंको इष्ट-अनिष्ट बतलाकर उनके राग-द्वेष बढ़ाये और अपने मान-लोभादिक उत्पन्न करे, इसमें क्या सिद्धि है ? तथा प्रणायामादिक साधन करे, पवनको चढ़ाकर समाधि लगाई कहे; सो यह तो जिस प्रकार नट साधना द्वारा हस्तादिकसे क्रिया करता है, उसी प्रकार यहाँ भी साधना द्वारा पवन से क्रिया की। हस्तादिक और पवन यह तो शरीर ही के अंग हैं, इनके साधनेसे आत्महित कैसे सधेगा? तथा तू कहेगा - वहाँ मन का विकल्प मिटता है, सुख उत्पन्न होता है, यमके वशीभूतपना नहीं होता; सो यह मिथ्या है। जिस प्रकार निद्रामें चेतना की प्रवृत्ति मिटती है, उसी प्रकार पवन साधनेसे यहाँ चेतना की प्रवृत्ति मिटती है। वहाँ मन को रोक रखा है, कुछ वासना तो मिटी नहीं है इसलिये मन का विकल्प मिटा नहीं कहते; और चेतना बिना सुख कौन भोगता है ? इसलिये सुख उत्पन्न हुआ नहीं कहते। तथा इस साधना वाले तो इस क्षेत्र में हुए हैं, उनमें कोई अमर दिखाई नहीं देता। अग्नि लगानेसे उसका भी मरण होता दिखाई देता है; इसलिये यम के वशीभूत नहीं है - यह झूठी कल्पना है। ___ तथा जहाँ साधना में किंचित् चेतना रहे और वहाँ साधनासे शब्द सुने उसे “अनहद नाद" बतलाता है। सो जिस प्रकार वीणादिकके शब्द सुननेसे सुख मानना है, उसी प्रकार उसके सुननेसे सुख मानना है। यहाँ तो विषय पोषण हुआ, परमार्थ तो कुछ नहीं है। तथा पवन के निकलने-प्रविष्ट होने में “सोहं" ऐसी शब्द की कल्पना करके उसे “अजपा जाप” कहते हैं। सो जिस प्रकार तीतर के शब्दमें “तू ही" शब्दकी कल्पना करते हैं, कहीं तीतर अर्थका अवधारण कर ऐसा शब्द नहीं कहता। उसी प्रकार यहाँ “ सोहं” शब्द की कल्पना है, कुछ पवन अर्थ अवधारण करके ऐसा शब्द नहीं कहते; तथा शब्द के जपनेसुनने ही से तो कुछ फल प्राप्ति नहीं है, अर्थका अवधारण करने से फल प्राप्ति होती है। “ सोहं" शब्द का तो अर्थ यह है “ सो मैं हूँ" यहाँ ऐसी अपेक्षा चाहिये कि – 'सो' कौन ? तब उसका निर्णय करना चाहिये; क्योंकि तत् शब्द को और यत् शब्द को नित्य सम्बन्ध है। इसलिये वस्तुका निर्णय करके उसमें अहंबुद्धि धारण करनेमें “ सोहं" शब्द बनता है। वहाँ भी आपको आपरूप अनुभव करे वहाँ तो “सोहं” शब्द सम्भव नहीं है, पर को अपनेरूप बतलानेमें “ सोहं” शब्द सम्भव है। जैसे - पुरुष आपको आप जाने, वहाँ “ सो मैं हूँ" ऐसा किसलिये विचारेगा? कोई अन्य जीव जो अपने को न पहचानता हो, और कोई अपना लक्षण न जानता हो, तब उससे कहते हैं – “जो ऐसा है सो मैं हूँ”, उसी प्रकार यहाँ जानना। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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