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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाँचवा अधिकार] [११५ तथा यज्ञादिक करना धर्म ठहराते हैं, सो वहाँ बड़े जीव उनका होम करते हैं, अग्नि आदिकका महा आरम्भ करते हैं, वहाँ जीवघात होता है; सो उन्हीं के शास्त्रों में व लोकमें हिंसा का निषेध है; परन्तु ऐसे निर्दय हैं कि कुछ गिनते नहीं हैं और कहते हैं – “यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः” इस यज्ञ के ही अर्थ पशु बनाये हैं, वहाँ घात करने का दोष नहीं है। तथा मेघादिकका होना, शत्रु आदिका विनष्ट होना इत्यादि फल बतलाकर अपने लोभके अर्थ राजादिकोंको भ्रमित करते हैं। सो कोई विष से जीवित होना कहे तो प्रत्यक्ष विरुद्ध है; उसी प्रकार हिंसा करने से धर्म और कार्यसिद्धि कहना प्रत्यक्ष विरुद्ध है। परन्त जिनकी हिंसा करना कहा, उनकी तो कुछ शक्ति नहीं है, किसी को उनकी पीड़ा नहीं है। यदि किसी शक्तिवान व इष्टका होम करना ठहराया होता तो ठीक रहता। पापका भय नहीं है, इसलिये पापी दुर्बलके घातक होकर अपने लोभके अर्थ अपना व अन्य का बुरा करने में तत्पर हुए हैं। योग मीमांसा तथा वे मोक्षमार्ग भक्तियोग और ज्ञानयोग द्वारा दो प्रकारसे प्ररूपित करते हैं। भक्तियोग मीमांसा अब भक्तियोग द्वारा मोक्षमार्ग कहते हैं उसका स्वरूप कहा जाता हैं : वहाँ भक्ति निर्गुण-सगुण भेदसे दो प्रकार की कहते हैं। वहाँ अद्वैत परब्रह्मकी भक्ति करना तो निर्गुण भक्ति है; वह इस प्रकार करते हैं - तुम निराकार हो, निरंजन हो, मनवचन से अगोचर हो. अपार हो, सर्वव्यापी हो, एक हो, सर्वके प्रतिपालक हो, अधम उधारन हो, सर्वके कर्ता-हर्ता हो, इत्यादि विशेषणोंसे गुण गाते हैं; सो इनमें कितने ही तो निराकारादि विशेषण हैं सो अभाव रूप हैं, उनको सर्वथा माननेसे अभाव ही भासित होता है। क्योंकि आकारादि बिना वस्तु कैसी होगी? तथा कितने ही सर्वव्यापी आदि विशेषण असम्भवी हैं सो उनका असम्भवपना पहले दिखाया ही है। फिर ऐसा कहते हैं कि - जीवबुद्धिसे मैं तुम्हारा दास हूँ , शास्त्रदृष्टिसे तुम्हारा अंश हूँ, तत्त्वबुद्धिसे “तू ही मैं हूँ " सो यह तीनों ही भ्रम है। यह भक्ति करनेवाला चेतन है या जड़ है ? यदि चेतन है तो चेतना ब्रह्मकी है या इसीकी है ? यदि ब्रह्मकी है तो “ मैं दास हूँ" ऐसा मानना तो यह चेतनाही के होता है सो चेतना ब्रह्मका स्वभाव ठहरा और स्वभाव-स्वभावीके तादात्म्य सम्बन्ध है वहाँ दास और स्वामीका सम्बन्ध कैसे बनता है ? दास और स्वामीका सम्बन्ध तो भिन्न पदार्थ हो तभी बनता है। तथा यदि यह चेतना इसीकी है तो यह अपनी चेतना का स्वामी भिन्न पदार्थ ठहरा, तब मैं अंश हूँ व “जो तू है Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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