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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ११४] [मोक्षमार्गप्रकाशक तथा सूर्यादिको ब्रह्मका स्वरूप कहते हैं। तथा ऐसा कहते हैं कि विष्णु ने कहा है - घातुओंमें सुवर्ण, वृक्षोंमें कल्पवृक्ष , जुएमें झूठ इत्यादिमें मैं ही हूँ; सो पूर्वापर कुछ विचार नहीं करते। किसी एक अंगसे कितने ही संसारी जिसे महंत मानते हैं, उसी को ब्रह्मका स्वरूप कहते हैं; सो ब्रह्म सर्वव्यापी है तो ऐसा विशेष किस लिये किया ? और सूर्यादिमें व सुवर्णादिमें ही ब्रह्म है तो सूर्य उजाला करता है, सुर्वण धन है इत्यादि गुणों से ब्रह्म माना; सो दीपादिक भी सूर्यवत् उजाला करते हैं, चाँदि लोहादि भी सूवर्णवत् धन हैं - इत्यादि गुण अन्य पदार्थों में भी हैं, उन्हें भी ब्रह्म मानों, बड़ा-छोटा मानो, परन्तु जाती तो एक हुई। सो झूठी महंतता ठहराने के अर्थ अनेक प्रकार की युक्ति बनाते हैं। तथा अनेक ज्वालामालिनी आदि देवियोंको माया का स्वरूप कहकर हिंसादिक पाप उत्पन्न करके उन्हें पूजना ठहराते हैं; सो माया तो निंद्य है, उसका पूजना कैसे सम्भव है ? और हिंसादिक करना कैसे भला होगा? तथा गाय, सर्प आदि पशु अभक्ष-भक्षणादिसहित उन्हें पूज्य कहते हैं; अग्नि, पवन, जलादिकको देव ठहराकर पूज्य कहते हैं; वृक्षादिकको युक्ति बना कर पूज्य कहते हैं। बहुत क्या कहें ? पुरुषलिंग नाम सहित जो हों उनमें ब्रह्मकी कल्पना करते हैं और स्त्रीलिंग नाम सहित हों उनमें मायाकी कल्पना करके अनेक वस्तुओंका पूजन ठहराते हैं। इनके पूजनेसे क्या होगा सो कुछ विचार नहीं है। झूठे लौकिक प्रयोजन के कारण ठहराकर जगतको भ्रमाते हैं। तथा वे कहते हैं – विधाता शरीर को गढ़ता है और यम मारता है, मरते समय यम के दूत लेने आते हैं, मरने के पश्चात् मार्गमें बहुत काल लगता है, तथा वहाँ पुण्य-पापका लेखा करते हैं और वहाँ दण्डादिक देते हैं; सो यह कल्पित झूठी युक्ति है। जीव तो प्रति समय अनन्त उपजते-मरते हैं, उनका युगपत् ऐसा होना कैसे सम्भव है ? और इसप्रकार माननेका कोई कारण भी भासित नहीं होता। तथा वे मरनेके पश्चात् श्राद्धादिकसे उसका भला होना कहते हैं, सो जीवित दशातो किसी के पुण्य-पाप द्वारा कोई सुखी-दुःखी होता दिखाई नहीं देता, मरनेके बादमेंकैसे होगा ? यह युक्ति मनुष्योंको भ्रमित करके अपना लोभ साधनेके अर्थ बनाई है। कीड़ी, पतंगा, सिंहादिक जीव भी तो उपजते-मरते हैं, उनको तो प्रलयके जीव ठहराते हैं; परन्तु जिस प्रकार मनुष्यादिकके जन्म-मरण होते देखे जाते हैं, उसी प्रकार उनके होते देखे जाते हैं। झूठी कल्पना करने से क्या सिद्धि है ? तथा वे शास्त्रोंमें कथादिकका निरूपण करते हैं वहाँ विचार करने पर विरुद्ध भासित होता है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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