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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चौथा अधिकार] [८९ वह नहीं चलती तब क्यों नहीं चलाता ? उसी प्रकार पदार्थ परिणमित होते हैं और यह जीव उनका अनुसरण करके ऐसा मानता है कि इनको मैं ऐसा परिणमित कर रहा हूँ परन्तु वह असत्य मानता है; यदि उसके परिणमानेसे परिणमित होते हैं तो वे वैसे परिणमित नहीं होते तब क्यों नहीं परिणमाता ? सो जैसा स्वयं चाहता है वैसा तो पदार्थ का परिणमन कदाचित् ऐसे ही बन जाय तब होता है। बहुत परिणमन तो जिन्हें स्वयं नहीं चाहता वैसे ही होते देखे जाते हैं। इसलिये यह निश्चय है कि अपने करनेसे किसी का सद्भाव या अभाव होता नहीं। तथा यदि अपने करने से सदभाव-अभाव होते ही नहीं तो कषायभाव करने से क्या हो? केवल स्वयं ही दुःखी होता है। जैसे - किसी विवाहादि कार्य में जिसका कुछ भी कहा नहीं होता, वह यदि स्वयं कर्त्ता होकर कषाय करे तो स्वयं ही दुःखी होता है - उसी प्रकार जानना। इसलिये कषायभाव करना ऐसा है जैसे जल का बिलोना कुछ कार्यकारी नहीं है। इसलिये इन कषायोंकि प्रवृत्तिको मिथ्याचारित्र कहते हैं। इष्ट-अनिष्टकी मिथ्या कल्पना तथा कषायभाव होते हैं सो पदार्थों को इष्ट-अनिष्ट मानने पर होते हैं, सो इष्टअनिष्ट मानना भी मिथ्या है; क्योंकि कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट है नहीं । कैसे ? सो कहते हैं :- जो अपने को सुखदायक - उपकारी हो उसे इष्ट कहते हैं; अपनेको दुःखदायक - अनुपकारी हो उसे अनिष्ट कहते हैं। लोकमें सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वभावके ही कर्ता हैं, कोई किसी को सुख-दुःखदायक, उपकारी-अनुपकारी है नहीं। यह जीव ही अपने परिणामोंमें उन्हें सुखदायक - उपकारी मानकर इष्ट जानता है अथवा दुःखदायक -अनुपकारी जानकर अनिष्ट मानता है; क्योंकि एक ही पदार्थ किसी को इष्ट लगता है. किसी को अनिष्ट लगता है। जैसे - जिसे वस्त्र न मिलता हो उसे मोटा वस्त्र इष्ट लगता है और जिसे पतला वस्त्र मिलता है उसे वह अनिष्ट लगता है। सूकरादि को विष्टा इष्ट लगती है, देवादिक को अनिष्ट लगती है। किसी को मेघवर्षा इष्ट लगती है किसी को अनिष्ट लगती है। - इसी प्रकार अन्य जानना। तथा इसी प्रकार एक जीवको भी एक ही पदार्थ किसी कालमें इष्ट लगता है, किसी कालमें अनिष्ट लगता है। तथा यह जीव जिसे मुख्य रूपसे इष्ट मानता है, वह भी अनिष्ट होता देखा जाता है - इत्यादि जानना। जैसे शरीर इष्ट है, परन्तु रोगादि सहित हो तब अनिष्ट हो जाता है; पुत्रादिक इष्ट हैं, परन्तु कारण मिलने पर अनिष्ट होते देखे जाते हैं - इत्यादि जानना। तथा यह जीव जिसे मुख्यरूप से अनिष्ट मानता है, वह भी इष्ट होता Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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