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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ८८] [मोक्षमार्गप्रकाशक समाधान :- वह हो तो वह हो – इस अपेक्षा कारणकार्यपना होता है। जैसेदीपक और प्रकाश युगपत् होते हैं; तथापि दीपक हो तो प्रकाश हो, इसलिये दीपक कारण है प्रकाश कार्य है। उसी प्रकार ज्ञान-श्रद्धानके है। अथवा मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञानके व सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानके कारण-कार्यपना जानना। फिर प्रश्न है कि - मिथ्यादर्शन के संयोगसे ही मिथ्याज्ञान नाम पाता है, तो एक मिथ्यादर्शनको ही संसारका कारण कहना था, मिथ्याज्ञानको अलग किस लिये कहा ? समाधान :- ज्ञानही की अपेक्षा तो मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिके क्षयोपशम से हुए यथार्थ ज्ञानमें कुछ विशेष नहीं है तथा वह ज्ञान केवलज्ञानमें भी जा मिलता है, जैसे नदी समुद्रमें मिलती है। इसलिये ज्ञान में कुछ दोष नहीं है। परन्तु क्षयोपशम ज्ञान जहाँ लगता है वहाँ एक ज्ञेय में लगता है, और इस मिथ्यादर्शनके निमित्तसे वह ज्ञान अन्य ज्ञेयोंमें तो लगता है, परन्तु प्रयोजनभूत जीवादितत्त्वोंका यथार्थ निर्णय करनेमें नहीं लगता। सो यह ज्ञान में दोष हुआ; इसे मिथ्याज्ञान कहा। तथा जीवादितत्त्वोंका यथार्थ श्रद्धान नहीं होता सो यह श्रद्धान में दोष हुआ; इसे मिथ्यादर्शन कहा। ऐसे लक्षण भेद से मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञानको भिन्न कहा। इस प्रकार मिथ्याज्ञानका स्वरूप कहा। इसी को तत्त्वज्ञान के अभाव से अज्ञान कहते हैं और अपना प्रयोजन नहीं साधता इसलिये इसीको कुज्ञान कहते है। मिथ्याचारित्रका स्वरूप अब मिथ्याचारित्रका स्वरूप कहते हैं :- चारित्रमोहके उदयसे जो कषायभाव होता है उसका नाम मिथ्याचारित्र है। यहाँ अपने स्वभावरूप प्रवृत्ति नहीं है, झूठी परस्वभावरूप प्रवृत्ति करना चाहता है सो बनती नहीं है; इसलिये इसका नाम मिथ्याचारित्र है। वही बतलाते हैं :- अपना स्वभाव तो दृष्टा-ज्ञाता है; सो स्वयं केवल देखनेवाला जाननेवाला तो रहता नहीं है, जिन पदार्थों को देखता जानता है उनमें इष्ट-अनिष्टपना मानता है, इसलिये रागी-द्वेषी होकर किसीका सद्भाव चाहता है, किसीका अभाव चाहता है। परन्तु उनका सद्भाव या अभाव इसका किया हुआ होता नहीं, क्योंकि कोई द्रव्य किसी द्रव्यका कर्ता-हर्ता है नहीं, सर्वद्रव्य अपने-अपने स्वभावरूप परिणमित होते है; यह वृथा ही कषायभाव से आकुलित होता है। तथा कदाचित् जैसा यह चाहे वैसा ही पदार्थ परिणमित हो तो अपने परिणमाने से तो परिणमित हुआ नहीं है। जैसे गाड़ी चलती है और बालक उसे धक्का देकर ऐसा माने कि मैं इसे चला रहा हूँ तो वह असत्य मानता है; यदि उसके चलाने से चलती हो तो जब Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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