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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [मोक्षमार्गप्रकाशक मिथ्यादर्शनकी प्रवृत्ति __ अब संसारी जीवों के मिथ्यादर्शनकी प्रवृत्ति कैसे पाई जाती है सो कहते हैं। यहाँ वर्णन तो श्रद्धान का करना है; परन्तु जानेगा तो श्रद्धान करेगा, इसलिये जाननेकी मुख्यता से वर्णन करते हैं। जीव -अजीवतत्त्व सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान ___ अनादिकाल से जीव है वह कर्म के निमित्त से अनेक पर्यायें धारण करता है। वहाँ पूर्व पर्यायको छोड़ता है, नवीन पर्याय धारण करता है। तथा वह पर्याय एक तो स्वयं आत्मा और अनंत पुद्गलपरमाणुमय शरीर उनसे एक पिण्ड बन्धानरूप है। तथा जीव को उस पर्यायमें – 'यह मैं हूँ' - ऐसी अहंबुद्धि होती है। तथा स्वयं जीव है, उसका स्वभाव तो ज्ञानादिक है और विभाव क्रोधादिक है और पुद्गलपरमाणुओंके वर्ण, गंध, रस, स्पर्शादि स्वभाव हैं - उन सबको अपना स्वरूप मानता है। 'ये मेरे है'- इस प्रकार उनमें ममत्वबुद्धि होती है। तथा स्वयं जीव है, उसके ज्ञानादिककी तथा क्रोधादिककी अधिकता हीनतारूप अवस्था होती है और पुद्गलपरमाणुओंकी वर्णादि पलटनेरूप अवस्था होती है उन सबको अपनी अवस्था मानता है। 'यह मेरी अवस्था है' - ऐसी ममत्व बुद्धि करता है। ___तथा जीव और शरीरके निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, इसलिये जो क्रिया होती है उसे अपनी मानता है। अपना दर्शन-ज्ञान स्वभाव है, उसकी प्रवृत्ति को निमित्तमात्र शरीर के अंगरूप स्पर्शनादि द्रव्यइन्द्रियाँ है; यह उन्हें एक मानकर ऐसा मानता है कि – हाथ आदि से मैने स्पर्श किया, जीभसे स्वाद लिया, नासिकासे सूंघा, नेत्रसे देखा, कानोंसे सुना। मनोवर्गणारूप आठ पंखुड़ियोंके फूले कमल के आकार का हृदयस्थानमें द्रव्यमन है, वह दृष्टिगम्य नहीं ऐसा है, सो शरीर का अंग है; उसके निमित्त होनेपर स्मरणादिरूप ज्ञान की प्रवृत्ति होती है। यह द्रव्यमनको और ज्ञान को एक मानकर ऐसा मानता है कि मैने मनसे जाना। तथा अपनेको बोलनेकी इच्छा होती है तब अपने प्रदेशों को जिस प्रकार बोलना बने उस प्रकार हिलाता है, तब एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध के कारण शरीर के अंग भी हिलते हैं। उनके निमित्तसे भाषावर्गणारूप पुदगल वचनरूप परिणमित होते हैं; यह सबको एक मानकर ऐसा मानता है कि मैं बोलता हूँ। तथा अपनेको गमनादि क्रियाकी या वस्तु ग्रहणादिककी इच्छा होती है तब अपने प्रदेशों को जैसे कार्य बने वैसे हिलाता है। वहाँ एकक्षेत्रावगाह के कारण शरीर के अंग Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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