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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ६२] [ मोक्षमार्गप्रकाशक हैं। जैसा निरूपण वेदनीयका कथन करते हुए किया वैसा यहाँ भी जानना। वेदनीय और नाममें सुख-दुःखके कारणपनेकी समानतासे निरूपणकी समानता जानना। गोत्रकर्मके उदयसे होनेवाला दुःख और उससे निवृत्ति तथा गोत्रकर्मके उदयसे उच्च-नीच कुलमें उत्पन्न होता है। वहाँ उच्च कुलमें उत्पन्न होने पर अपनेको ऊँचा मानता है और नीच कुलमें उत्पन्न होने पर अपनेको नीचा मानता है। वहाँ, कुल पलटनेका उपाय तो इसको भासित नहीं होता इसलिये जैसा कुल प्राप्त किया उसीमें अपनापन मानता है। परन्तु कुल की अपेक्षा ऊँचा-नीचा मानना भ्रम है। कोई उच्च कुलवाला निंद्य कार्य करे तो वह नीचा हो जाये और नीच कुलमें कोई श्लाध्य कार्य करे तो वह ऊँचा हो जाये। लोभादिकसे उच्च कुलवाले नीचे कुलवालेकी सेवा करने लग जाते हैं। तथा कुल कितने काल रहता है ? पर्याय छूटने पर कुलकी बदली होजाती है; इसलिये उच्च-नीच कुलसे अपनेको ऊँचा-नीचा मानने पर उच्च कुलवालेको नीचा होनेके भयका और नीच कुलवालेको प्राप्त किये हुए नीचेपनका दुःख ही है। इसका सच्चा उपाय यही है कि – सम्यग्दर्शनादिक द्वारा उच्च-नीच कुलमें हर्षविषाद न माने। तथा उन्हींसे जिसकी फिर बदली नहीं होती ऐसा सबसे ऊँचा सिद्धपद प्राप्त करता है तब सब दुख मिट जाते हैं और सुखी होता है। इस प्रकार कर्मोदयकी अपेक्षा मिथ्यादर्शनादिकके निमित्तसे संसारमें दुःख ही दुःख पाया जाता है, उसका वर्णन किया। (ख) पर्याय की अपेक्षा से पर्यायों की अपेक्षासे अब, इसी दुःखका वर्णन करते हैं : एकेन्द्रिय जीवोंके दुःख ___ इस संसारमें बहुत काल तो एकेन्द्रिय पर्यायमें ही बीतता है। इसलिये अनादिहीसे तो नित्यनिगोदमें रहना होता है; फिर वहाँसे निकलना ऐसा है जैसे भाड़में भुंजते हुए चनेका उचट जाना। इस प्रकार वहाँ से निकलकर अन्य पर्याय धारण करे तो त्रसमें तो बहुत थोड़े ही काल रहता है; एकेन्द्रियमें ही बहुत काल व्यतीत करता है। वहाँ इतरनिगोदमें बहुत काल रहना होता है तथा कितने काल तक पृथ्वी, अप, तेज, वायु और प्रत्येक वनस्पतिमें रहना होता है। नित्यनिगोदसे निकलकर बादमें त्रसमें रहनेका उत्कृष्ट काल तो साधिक दो हजार सागर ही है तथा एकेन्द्रियमें रहनेका उत्कृष्ट Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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