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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है वही वास्तविक ज्ञान है।।३४५।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ १३४, बोल नं. ४८१) * प्रश्न : ज्ञेय को जानने से राग-द्वेष होता है या इष्ट अनिष्ट बुद्धि करने से राग-द्वेष होता है ? उत्तर : परज्ञेय को जानने गया (पर के सन्मुख होना) वही राग है। वास्तव में पर को जानने के लिए जाना नहीं पड़ता।।३४६ ।।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ १३५ , बोल नं. ४८४) * पर की ओर झुकी हुई ज्ञान की पर्याय में भी वास्तव में तो ज्ञायक ही जानने में आ रहा है। यह बात आचार्य देव ने गाथा १७–१८ ( समयसार) में कही है। ज्ञान की पर्याय का स्वपरप्रकाशकपने का स्वभाव है। इसलिए वर्तमान ज्ञान पर्याय में जो यह वस्तु त्रिकाल परम पारिणामिक भाव से स्थित है वह जानने में आती है। अज्ञानी को भी वह त्रिकाली द्रव्य ज्ञान में जानने में आता है। लेकिन उसकी नजर उसके ऊपर नहीं है। दृष्टि का फर्क है बापा! ध्रुव की दृष्टि करने के बदले वह अपनी नजर पर्याय ऊपर, राग ऊपर, निमित्त ऊपर और बाहर के पदार्थों के ऊपर रखता हैं इसलिए उसे अन्दर का चैतन्य-निधान देखने को नहीं मिलता है।।३४७।। (अध्यात्म प्रवचन रत्नत्रय, पृष्ठ ९७, दूसरा पैराग्राफ) * तो भी ज्ञेय पदार्थों के कारण से ज्ञान परिणमित हआ है-ऐसा नहीं है। ज्ञेयकृत अशुद्धता उसे नहीं है। पर के कारण से ज्ञान ज्ञेयाकाररूप होता है-ऐसा नहीं है। परन्तु अपने परिणमन की योग्यता से अपना ज्ञानाकार अपने से हुआ है।।३४८ ।। (श्री गुजराती प्रवचनरत्नाकर, भाग-१, पृष्ठ ९७, गाथा ६ की टीका ऊपर का प्रवचन) * ज्ञायकभाव के लक्ष से जो ज्ञान का परिणमन हुआ उसमें स्व का ज्ञान १८० * इन्द्रियज्ञान की रुचि सम्यग्दर्शन में बाधक है* Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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