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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है ज्ञान की पर्याय के सामर्थ्य के द्वारा ही स्व और पर जानने में आते हैं। परज्ञेयों के कारण से ज्ञान कभी भी नहीं होता है। लो, कहते हैंनिश्चय से ज्ञायक तो बस ज्ञायक ही है; अर्थात् ज्ञायक स्वयं को हीअपने द्रव्य गुण-पर्याय को ही जानता हुआ ज्ञायक है। ऐसी बात है।।३४३।। (श्री गुजराती प्रवचनरत्नाकर, भाग ९, पृष्ठ ३४१ अंतिम पैराग्राफ) * आचारांग आदि शब्दश्रुत वह ज्ञान है-ऐसा पहले व्यवहार से कहा, लेकिन अभी शुद्धात्मा ज्ञान है ऐसा निश्चय कहा। ऐसा क्यों कहा? क्योंकि व्यवहार ज्ञान में शब्दश्रुत निमित्त है, उसमें शब्दश्रुत जानने में आया लेकिन आत्मा जानने में नहीं आया; इसलिए उसे व्यवहार कहा। और सत्यार्थ ज्ञान में-निश्चय ज्ञान में भगवान आत्मा परिपूर्ण जानने में आया; इसलिए उसको निश्चय कहा। उसको भगवान आत्मा का आश्रय है ने ? और भगवान आत्मा इसमें पूरा जानने में आता है ने ? इसलिए वह निश्चय है, यथार्थ है। अहो! आचार्य देव ने अमृत पिलाया है। भाई! इसमें तो शास्त्र-ज्ञान का मद-अभिमान उतर जाये-ऐसी बात है। शास्त्रज्ञान-शब्दश्रुतज्ञान तो विकल्प है बापू! यह तो वास्तव में बंध का कारण है भाई!।।३४४।। (श्री गुजराती प्रवचनरत्नाकर, भाग ८, पृष्ठ २७१, मध्यम पैराग्राफ) * प्रश्न : सम्यग्दृष्टि को खंडज्ञान और अखंडज्ञान दोनों एक साथ होते हैं ? उत्तर : सम्यग्दृष्टि को अखंड की दृष्टि है और खण्ड-खण्ड ज्ञान ज्ञेयरूप है। एक ज्ञान पर्याय में दो भाग हैं। जितना स्वलक्षी ज्ञान है वह सुखरूप है जितना परलक्षी परसत्तावलंबी ज्ञान है वह दुःखरूप है। परतरफ का श्रुत का ज्ञान इन्द्रियज्ञान है, परज्ञेय है, परज्ञेय है, परद्रव्य है। अहाहा! देव गुरु तो परद्रव्य हैं लेकिन इन्द्रियज्ञान भी परद्रव्य है। आत्मा का ज्ञान ___ १७९ *इन्द्रियज्ञान आत्मा को तिरोभूत करके प्रगट होता है* Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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