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________________ ११८ श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित एवमहं आलोइअ, निंदिअ गरहिअ दुगंछिअं सम्म तिविहेण पडिक्कतो, वंदामि जिणे चउव्वीसं । (५०) इस तरह सम्यक् प्रकार से अतिचारों की आलोचना-निंदा-गर्दा और (पापकारी मेरी आत्मा को धिक्कार हो इस तरह) जुगुप्सा करके, मैं मन, वचन और काया से प्रतिक्रमण करते हुए चौबीस जिनेश्वरों को वंदन करता हूँ | (५०) जिन बीस स्थानकोका उल्लासपूर्वक आराधन करनेसे 'पुरुषोत्तमपद' की प्राप्ति होती है, उसमें से एक स्थानक 'वंदितु सूत्र' प्रतिक्रमण सूत्रमें आवश्यक सूत्र है । इसलिए उसकी उपादेयता श्रमण और श्रावक उभयके लिए एक समान है | श्रावक धर्मको लगते संभवित अतिचारोका आलापका ये सत्रमें दिए गए है। इसलिए श्रावकको प्रतिदिन अपने व्रतमें लगे अतिचारो की निंदा और गर्दा द्वारा प्रतिक्रमण करना समुचित है। यहां तक देवसिअ प्रतिक्रमणकी विधि चालु थी, आगेभी यह क्रिया पूर्ण करनी है। मगर इस दरम्यान अब संवत्सरी प्रतिक्रमणकी विधि करनी है। इसलिए १२ मास दरम्यान या वर्ष दरम्यान लगे हुए सर्व पापोका क्षय करने और आत्मिक शुद्धि पाने के लिए अब सांवत्सरिक प्रतिक्रमणकी क्रिया शरु करेंगे। (कोई भी शुभ काममें छींक को अपशुकन माना जाता है इसलिए यहाँसे छींकका उपयोग रखे) देव-गुरुको पंचांग वंदन इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए, Hो मत्थएण वंदामि (१) मैं इच्छता हूं हे क्षमाश्रमण ! वंदन करने के लिए, सब शक्ति लगाकर व दोष त्याग कर मस्तक नमाकर मैं वंदन करता हूं | (१)
SR No.007740
Book TitleSamvatsari Pratikraman Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIla Mehta
PublisherIla Mehta
Publication Year2015
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size28 MB
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