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________________ श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित ११७ दीर्घकाल से संचित पापों का नाश करनेवाली, लाखो भव का क्षय करने वाली जैसी चौबीस जिनेश्वरों के मुख से निकली हुई धर्मकथाओं (देशना) के स्वाध्याय से, मेरे दिवस व्यतीत हो |(४६) मम मंगल मरिहंता, सिद्धा साहू सुअंच धम्मो अ सम्म दिहि देवा, दितु समाहिं च बोहिं च | (४७) अरिहंत भगवंत, सिद्ध भगवंत, साधु भगवंत, द्वादशांगी रूप श्रूतज्ञान व चारित्रधर्म मुझे मंगल रूप हो, वे सब तथा सम्यग्दृष्टि देव मुझे समाधि और बोधि (परभवमें जिनधर्म की प्राप्ति) प्रदान करें |(४७) _ (प्रतिक्रमणका कारण) __पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाण मकरणे अ पडिक्कमणं। असद्दहणे अ तहा, विवरीअ परूवणाए अ | (४८) (जिनेश्वर भगवंतों ने) निषेध किये हुए कृत्यों का आचरण करने से, करने योग्य कृत्यों का आचरण नहीं करने से, (प्रभुवचन पर) अश्रद्धा करने से तथा जिनेश्वर देव के उपदेश से विपरीत प्ररूपणा करने से प्रतिक्रमण करना आवश्यक है |(४८) (सर्व जीवके प्रति क्षमापना) खामेमि सव्व जीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे; मित्ती मे सव्व भूएसु, वेरं मज्झ न केणइ । (४५) सब जीवों की मैं क्षमा चाहता हुँ, सभी जीव मुझे क्षमा करें, मेरी सब जीवों के साथ मित्रता (मैत्रीभाव) है तथा किसी के साथ वैर भाव नहीं है |(४९)
SR No.007740
Book TitleSamvatsari Pratikraman Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIla Mehta
PublisherIla Mehta
Publication Year2015
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size28 MB
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