SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६ श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित विरत हुआ हूँ । अतः मन वचन और काया द्वारा संपूर्ण दोषों से / पापों से निवृत्त होता हुआ चोबीसो जिनेश्वरों को मैं वंदन करता हूँ । (४३) 'अब्भुट्ठिओ मि' बोलते खडे होकर, योग मुद्रामें शेष सूत्र बोलना (सर्व चैत्यवंदन) जावंति चेइआइं, उड्ढे अ अहे अ तिरिअ लोए अ सव्वाइं ताइं वंदे, इह संतो तत्थ संताई । (vv ) ऊर्ध्वलोक मे (देवलोक ), अधोलोक मे (भवनपति - व्यंतरादि के निवास) व मनुष्यलोक मे (तिर्छालोक - मध्यलोक) जितने भी जिनबिंब हो, वहाँ रहे हुए उन सबको यहाँ रहता हुआ मैं, वंदन करता हूँ । (४४) , (सर्व साधु वंदन) जावंत केवि साहू, भरहेर वय महाविदेहे अ । सव्वेसिं तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंड विरयाणं । (४५) ५-भरत, ५- औरावत व ५ - महाविदेह में स्थित, मन-वचन और काया से पाप प्रवृत्ति नहीं करते, नहीं कराते और करते हुए का अनुमोदन भी नहीं करते ऐसे जितने भी साधु भगवंत हों उन सबको मैं नमस्कार करता हूँ । (४५) (शुभ भावकी प्रार्थना) चिर संचिय पाव पणासणीइ, भव सय सहस्स महणीए चउवीस जिण विणिग्गय कहाइ, वोलंतु मे दिअहा । (४६)
SR No.007740
Book TitleSamvatsari Pratikraman Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIla Mehta
PublisherIla Mehta
Publication Year2015
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy