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________________ जैन धर्म का प्रचार (३) इस्लाम धर्म के संस्थापक पैग़म्बर महमूद के पूर्व मक्का में भी जैन मन्दिर विद्यमान था । किन्तु काल की कुटिलता से जब जैनी लोग उस देश में न रहे तो 'महुवा' (मधुमति) के दूरदर्शी श्रावक मक्के से वहाँ स्थित मूर्तियों को ले आये तथा अपने नगर में उन्हें प्रतिष्टित करली जो आज पर्यन्त भी विद्यमान हैं इससे सिद्ध होता है कि ऐशिया के ऐसे-ऐसे रेगिस्तानों में भी जैनधर्म के ब्रतधारी श्रावकों का वास था। यह क्षेत्र दुर्लभ था तथापि प्रयत्न करने वाले तो वहाँ भी प्रचार हेतु पहुँच गये थे; तो कोई कारण नहीं दीखता कि वे अन्य सुलभ प्रान्तों में न गये हों। महाराजा सम्प्रति के चरित्र से स्पष्ट ज्ञात होता है कि इनके प्रयत्न से कई सुभट अनार्य देशों में साधु के वेष में इस कारण भेजे गये थे कि वहाँ जाकर इष्ट क्षेत्र को साधुओं के विहार योग्य बना दें और इस कार्य में पूर्ण सफलता भी उन्हें मिली । कई साधु अनार्य देशों में गये और वहाँ के लोगों की जैनधर्म पर श्रद्धा उत्पन्न कराने में समर्थ हुए । इस प्रयत्न से इतनी सफलता मिली कि अविस्तान, अफगानिस्तान, तुर्किस्तान, ईरान, युनान, मिश्र, तिब्बत, चीन, जापान, ब्रह्मा, आसाम, लंका, अफ्रीका और अमेरिका तक के प्रदेशों में जैनधर्म का प्रचार हो गया। यह बात केवल दन्तकथा रूप में नहीं है पर प्राचीन ग्रन्थों में इन सब बातों का प्रमाण मिलता है इतना ही नहीं बल्कि आज की सोध एवं खोज के पुरातत्व विद्वानों ने भी साबित कर दिया है कि जैनधर्म अमेरिका तक प्रसरा हुआ था। हाल ही में एक विद्वान् ने बंबई समाचार अखबार ता० ४ अगस्त सन् ३४ को एक जैन-चर्चा शीर्षक लेख में ठीक प्रमाणों से सिद्ध किया
SR No.007290
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 04 Jain Dharm ka Prachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpamala
Publication Year1935
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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