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________________ ४ प्रा० जै० ० इ० चौथा भाग आठों दिशाओं में था । उस समय इस बात का पूर्ण प्रयत्न किया गया था कि कोई देश ऐसा न रहने पावे कि जहाँ के लोग परम पुनीत जैन धर्म की छत्रछाया में सुख और शान्तिपूर्वक अपने जीवन को व्यतीत न करें । उपर्युक्त कथन कपोल कल्पित नहीं है बल्कि ऐतिहासिक सत्य है । ( १ ) आर्द्रकुमार नामक राजपुत्र ने महाराजा श्रेणिक के सुपुत्र अभयकुमार के पूर्ण प्रयत्न करने से दीक्षा ग्रहण कर प्रबल उत्कण्ठा से भारत के बाहर अनार्य देशों में अनवरत परिश्रम कर के जैन धर्म का प्रचार बहुत जोरों से किया था । ( २ ) यूरोप के मध्य में आये हुए आस्ट्रिया हंगेरी नामक प्रान्त में भूकम्प के कारण जो भूमि पर एकाएक परिवर्तन हुए थे उनको ध्यानपूर्वक अन्वेषण की दृष्टि से अवलोकन करते हुए कई प्राचीन पदार्थ प्राप्त हुए एवं बुडापेस्ट नगर में एक अंग्रेज़ के बगीचे के खोदने के कार्य के अन्दर भूमि से भगवान महावीर स्वामी की एक मूर्ति हस्तगत हुई है जो बहुत ही प्राचीन है । इससे मानना पड़ता है कि यूरोप के मध्यस्थल में भी जैनोपासकों की अच्छी बस्ती थी तथा वे आत्मकल्याण के उज्ज्वल उद्द ेश्य से भगवान की मूर्ति के दर्शन तथा पूजन कर अपने जीवन को सफल बनाकर आत्मोन्नति के ध्येय को सिद्ध करने में सतत संलग्न थे । इन्हीं कारणों से वे लोग जैन मन्दिरों का निर्माण कराते थे तथा उनमें भव्य मूर्त्तियों का अर्चन करते थे । * अभयकुमार ने भगवान् श्रदीश्वर की मूर्ति भेजी थी जिसके दर्शन से आई कुमार को जातिस्मरण ज्ञान हुआ ।
SR No.007290
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 04 Jain Dharm ka Prachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpamala
Publication Year1935
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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