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________________ प्रा० जै० इ० चौथा भाग है कि मंगोलिया और अमेरिका में एक समय जैनधर्म का बहुत प्रचार था और जैन मन्दिरों के खण्डहर भी प्रचुरता से पाये जाते हैं एवं यह लिखना अतिशय युक्ति नहीं है कि पूर्वोक्त प्रदेशों में जैन धर्म का खूब प्रचार था। ___उपयुक्त वर्णन से मालूम होता है कि अनार्य देशों में भी जैनियों की घनी वस्ती थी। वहाँ के लोग भी जैन धर्म का पालन कर अपने मानव जीवन को सफल करते थे। ऐसी दशा में जब कि दूर दूर के देशों में जैनधर्मावलम्बी विद्यमान थे तो यह स्वाभाविक ही है कि भारत के कोने कोने में जैनधर्म की ज्योति जागृत हुई हो । इस बात को स्वीकार करते किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं हो सकता। (५) नेपाल प्रान्त । जब भारत के पूर्व में विक्रम पूर्व चौथी शताब्दी में भीषण दुष्काल पड़ा था तो आचार्य भद्रवाहुसूरि ने अपने पाँचसौ शिष्यों सहित नेपाल में विहार किया था इनके अतिरिक्त और भी कई साधु इस प्रदेश में विचरण करते थे। इससे सिद्ध होता है कि इस समय जैनों की घनी बस्ती उस प्रान्त में होगी। इतने मुनिराजों का निर्वाह व्रतपूर्वक बिना जैन जाति के लोगों के होना अशक्य था। इस पर भी जिस प्रान्त में भद्रबाहुसूरि जैसे चमत्कारी और उत्कट प्रभावशाली प्राचार्य विहार करते रहे उस प्रान्त में जिनशासन की इस प्रकार की बढ़ती हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। किन्तु इस बात को जानने का कुछ भी साधन नहीं है कि भद्रबाहुसूरि के पश्चात् जैनधर्म किस प्रकार नेपाल में न रहा । हाँ, खोज करने पर केवल इतना प्रकट होता है कि विक्रम की दसवीं तथा ग्यारहवीं शताब्दियों में नैपाल प्रदेश में जैनधर्म का प्रचार था। नैपाल के
SR No.007290
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 04 Jain Dharm ka Prachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpamala
Publication Year1935
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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