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________________ ५१] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ तृतीय लगे । तलवार के बल पर मुसलमान बनाये जाने लगे । फल यह हुआ कि उक्त दोनों मतों में चला आता हुआ द्वन्द्व समाप्त हो गया और धर्म और प्राण बचाने की कठिन समस्या उत्पन्न हो गई । पृथ्वीराज जैसे महाबली सम्राट् की पराजय से कोई भी भारतीय राजा मुहम्मद गौरी से सामना करने का विचार स्वप्न में भी नहीं कर सकता था। गौरी तो अजमेर की जीत करके अपने देश को लौट गया और अपने पीछे योग्य शासक कुतुबुद्दीन को छोड़ गया। कुतुबुद्दीन ने थोड़े ही समय में मीरट, कोल, दिल्ली को जीत लिया और वह दिल्ली को अपनी राजधानी बनाकर राज्य करने लगा । वह ई० सन् १२०६ वि० सं० बन बैठा । उस समय से ही भारत में यवबराज्य की स्थापना हुई समझी जाती है। १२६३ में स्वतंत्र शासक उधर आर्य ज्ञातियों एवं वर्गों में भी कई एक शाखायें उत्पन्न होना आरंभ हो गई थीं। नीच, ऊँच के भाष अधिक दृढ़ होते जा रहे थे। ज्ञातिवाद भयंकर छूत-अछूत की महामारी की सहायता लेकर श्रार्यज्ञाति को छिन्न-भिन्न कर रहा था । २ अस्तित्व अलग जैसा पूर्व में लिखा जा चुका है कि जैन समाज के भीतर भी रहे हुये वर्ग अपना स्थापित करने लग गये थे और फिर प्रत्येक वर्ग के भीतर भी साधारण प्रश्नों, त्रुटियों को लेकर कई शाखायें उत्पन्न होने के लक्षण प्रतीत होने लग गये थे । अब प्राग्वाट, श्रीमाल, श्रोसवाल जो परम्परा से कन्या - व्यवहार करते थे, जैनाचार्य अन्य धर्मानुयायी उच्च कुलों को जैनधर्म का प्रतिबोध देकर जिनमें संमिलित करने का समाज की वृद्धि करनेवाला कार्य कर रहे थे, अब ये सर्व सामाजिक संबंध शिथिल पड़ने लगे । और जहाँ परस्पर जैनवर्गों में कन्या व्यवहार का करना बंद प्रायः होने लग गया, वहाँ अब नये कुलों को जैन बनाकर नवीनतः स्वीकार करने की बात ही कैसी ? ज्ञातिवाद का भयंकर भूत बढ़ने लगा। थोड़ी भी किसी कुल से सामाजिक त्रुटि हुई, वह ज्ञाति से बहिष्कृत किया जाने लगा । मुसलमानों के बढ़ते हुये अत्याचारों से, बहू-बेटियों पर दिन-रात होने वाले बलात्कारों से समस्त उत्तरी भारत भयभीत हो उठा और धर्म, स्त्री, प्राण, धन की रक्षा करना अति ही कठिन हो गया । यवनों का यह अत्याचार सम्राट् अकबर के राज्य के प्रारंभ तक बढ़ता ही चला गया। बीच में महमूदतुगलक के राज्यकाल में अवश्य थोड़ी शांति रही थी । यवनों के इस्लामीनीति पर चलने वाले राज्य के कारण भारत की सामाजिक, धार्मिक, व्यावसायिक, आर्थिक, स्थिति भयंकर रूप से बिगड़ गई। सब प्रकार की स्वतंत्रतायें नष्ट हो गई। जैनसमाज भी इस कुप्रभाव से कैसे बच कर रह सकती थी । इसके भी कई तीर्थों एवं जैन मंदिरों को तोड़ा गया । बिहार और बंगाल में रहे हुये कई सहस्र जैन को धर्म नहीं बदलने के कारण तलवार के पार उतारा गया । राजस्थान कुलगुरुओं की जो पौषधशालायें आज विद्यमान हैं, इनमें से अनेक के यहाँ आकर बसने वाले कुलगुरु बिहार से अपने प्राण और धर्म को बचाने की दृष्टि से भाग कर आने वालों में थे । उनके तेज और तप से प्रभावित होकर राजस्थान के कई एक राजा और सामंतों ने उनको आश्रय दिया और उनको मानपूर्वक बसाया । लिखने का तात्पर्य यही है कि अब नये जैन बनाना बंद-सा हो गया और जैनसमाज का घटना, कई शाखाओं एवं स्वतंत्र वर्गों में विभाजित होकर छिन्न-भिन्न होना प्रारंभ हो गया । जहाँ प्राग्बाट, श्रीमाल, ओसवाल आदि
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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