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________________ खण्ड] : तीर्थादि के लिये प्रा० झा० सद्गृहस्थों द्वारा की गई संधयात्रायें-सं० सूरा और वीरा: [३२१ श्रेष्ठि नाथा वि० सं० १७२१ नाडोल यह जोधपुर (राजस्थान) राज्य के गोडवाड़प्रांत का एक प्रसिद्ध और प्राचीन नगर है । यहाँ के वासी प्राग्वाटज्ञातीय वृद्धशाखीय शाह जीवाजी की स्त्री जशमादेवी की कुक्षी से उत्पन्न शा० नाथा ने महाराजाधिराज श्री अभयराजजी के विजयी राज्य में भट्टारक श्री विजयप्रभसूरि के द्वारा श्री मुनिसुव्रतस्वामी का बिंब वि० सं० १७२१ ज्येष्ठ शु० ३ रविवार को प्रतिष्ठित करवाया । यह बिंब इस समय नाडूलाई के श्री सुपार्श्वनाथमंदिर में विरामान है ।* इस मंदिर के निर्माता भी शाह जीवा और नाथा ही थे ऐसी वहाँ के लोगों में जनश्रुति प्रचलित है। तीर्थादि के लिये प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा की गई संघयात्रायें संघपति श्रेष्ठि सूरा और वीरा की श्री शत्रुजयतीर्थ की संघयात्रा विक्रम की सोलहवीं शताब्दी विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में माण्डवगढ़ में, जब कि मालवपति ग्यासुद्दीन खिलजी बादशाह राज्य करता था, उस समय में प्राग्वाटज्ञातीय नररत्न श्रे० सूरा और वीरा नामक दो भ्राता बड़े ही धर्मात्मा हो *प्रा० ० ले० सं०भा०२ ले० ३४० इस मन्दिर के निर्माण के सम्बन्ध में एक दन्त-कथा प्रचलित है। सं० जीवा और उसका पुत्र नाथा दोनों ही बड़े उदार-हृदय एवं दयालु श्रीमंत थे । एक वर्ष बड़ा भयंकर दुष्काल पड़ा और नाडूलाई का प्रगणा राज्यकर देने में असमर्थ रहा । राज्यकर नहीं देने पर राज्यकर्मचारी प्रजा को पीड़ित करने लगे। प्रजा को इस प्रकार सताई जाती हुई देखकर दोनों पितापुत्रों ने समस्त प्रजा का राज्यकर अपनी ओर से देने का निश्चय किया और वे मुख्य राज्याधिकारी के पास में पहुंचे और अपना विचार व्यक्त किया। उनका विचार सुनकर मुख्य राज्यकर्मचारी अत्यन्त ही प्रसन्न हुआ। उसने भी तुरन्त ही नाडूलाई से राज्यकर को नरेश्वर के कोष में भिजवा दिया। जब राजा को यह ज्ञात हुआ कि नाडूलाई के प्रगणा में अकाल है और फिर भी उस प्रगणा का राज्यकर पूरा उग्रहीत हुआ है और अन्य वर्षों की अपेक्षा भी राज्यकोष में पहिले आ पहुँचा है, उसको बड़ा आश्चर्य हुश्रा। राजा ने साथ में यह भी सोचा कि मुख्य राज्याधिकारी ने दुष्काल से पीडित प्रजा को राज्यकर की प्राप्ति के अर्थ अवश्यमेव संताड़ित किया होगा । सत्य कारण ज्ञात करने के लिये उसने अपने विश्वासपात्र सेवकों को नाडूलाई में भेजा। सेवकों ने नाडूलाई से लौट कर राजा को राज्यकर की इस प्रकार हुई खरायुक्त प्राप्ति का सच्चा २ कारण कह सुनाया । राजा श्रेक जीवा और नत्था की परोपकारवृत्ति पर अत्यन्त ही मुग्ध हुआ। उसने विचारा कि मेरे राज्य का एक शाहूकार मेरी प्यारी प्रजा के दुःख के लिये अपने कठिन श्रम से अर्जित विपुल राशी व्यय कर सकता है तो क्या मैं प्रजा का अधीश्वर कहा जाने वाला एक वर्ष के लिये भी दु:खित प्रजा को राज्यकर क्षमा नहीं कर सकता। ऐसा सोचकर राजा ने नाडूलाई से पाया हुश्रा समस्त राज्यकर श्रे० जीवा और नत्था को लौटाने के लिए अपने मुख्य राज्याधिकारी के पास में भेज दिया। राजा की भेजी हुई उक्त धनराशी को जब मुख्य राज्याधिकारी श्रे० जीवा और नत्था को ससम्मान देने के लिये गया, तो दोनों पिता-पुत्रों ने लेने से अस्वीकार किया और कहा कि हम तो इसको धर्मार्थ लिख चुके, अब यह किसी भी प्रकार ग्राह्य नहीं हो सकती है। मुख्य राज्याधिकारी ने यह समाचार राजा को पहुँचा दिये । स्वयं राजा भी जीवा और नत्था की धर्मपरायणता एवं निस्वार्थपरोपकारवृत्ति पर अत्यन्त ही मुग्ध तो हुआ, परन्तु वह भी उस राशी को अपने राज्यकोष में डालने के लिये प्रसच नहीं हुआ। बहुत समय तक दोनों और इस विषय में विचार होते रहे । निदान राजा की आज्ञा को शिरोधार्य करके राजा की सम्मति के अनुसार उन्होंने उक्त राशी को किसी धर्मक्षेत्र में अपनी इच्छानुसार व्यय करना स्वीकृत किया और निदान उस राशी से इस जिनालय का निर्माण करवाया।
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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